- थारू
- जौनसारी
- बुक्सा
- खैरवार
- अगरिया
- अहेरिया
- बैगा
- बेलदार
- बिंद
- चेरो
- घसिया
- कोल
- कोरवा
- थारू जनजाति
- फोटो गैलरी
- लोक संगीत एवं नृत्य
- वाद्य यन्त्र
- जनगणना 2011 के अनुसार उत्तर प्रदेश में कुल जनजातियों की संख्या 11,34,273 है।
- संविधान के अनुच्छेद 342 में जनजातियां उल्लेखित हैं।
- सबसे ज्यादा जनसंख्या थारू जनजाति की है।
- उत्तर प्रदेश में कुल 12 जनजातियां हैं।
- सबसे पुरानी जनजाति थारू तथा बुक्सा है।
- सबसे ज्यादा जनजाति सोनभद्र जनपद में तथा सबसे कम जनजाति बागपत में हैं।
- थारू जनजाति उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है|
- थारू जनजाति के लोग उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के तराई भाग में निवास करते है
- थारू जनजाति के लोग किरात वंश से सम्बंधित है
- थारुओ द्वारा बजहर नामक त्यौहार मनाया जाता है दीपावली को ये शोक पर्व के रूप में मनाते है , थारू जनजाति द्वारा होली के मौके पर खिचड़ी नृत्य किया जाता है
- थारू जनजाती के लोगो में बदला विवाह प्रथा तथा तीन टिकठी विवाह प्रथा प्रचलित है , थारुओ में दोनों पक्षो से विवाह तय हो जाने को पक्की पोड़ी कहा जाता है
- उत्तर प्रदेश में 2 अक्टूबर 1980 को थारू विकास परियोजना का प्रारंभ किया गया
संगीत एवं नृत्य
- जट-जटिन
जट-जटिन लोककला एवं लोकनृत्य है। इसमें दो नाचने की टोली होती है, जो नाच-गान करके,नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। जट-जटिन भारत के तराई में एक लोकप्रिय लोक नृत्य है। जाट जटिन महिलाओं का नृत्य है, और मानसून के दौरान चांदनी रातों पर किया जाता है
- झिंझिया
झिझिया नृत्य तराई का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। तराई के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाले घड़े को लेकर नाचती हैं।
- झुमरा
थारू जनजाति का ये नृत्य तराइे क्षेत्र के मुख्य लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को थारू जन जातीय समुदाय द्वारा प्रमुख त्योहारों पर किया जाता है। होली, दीपावली दशहरा इत्यादि।
- करमा नृत्य
उपरोक्त सम्प्रदाय में करम देवता को इष्ट देवता माना गया, इनके सभी मांगलिक व धार्मिक कार्य अपने करम देवता की पूजा करके किए जाते हैं। इस सम्रपदाय में आज भी बलि पूजा को माना जाता है। इसके बाद इस विशेष नृत्य एक मान्यता ये भी है के इस सम्प्रदाय में सात विवाहित महिलाएं कदम्ब की डाली को विशेष पूजा, अर्चना के साथ स्थापित करती है तथा जो विशेष नृत्य इस अवसर पर किया जाता है उसे कर्मा नृत्य कहते हैं। इसमें महिला कलाकार नृत्य व गायन करती हैं व पुरूष कलाकार मादल बजाकर नृत्य करते हैं।
फरुवाही नृत्य
यह भारतीय इतिहास की पहली एक ऐसी नाच है जिसमें सिर्फ मर्द ही नाचते हैं और तमाम रूप से ऐसा रूप दिखाते हैं जिसमें सिर्फ जो वीर और उत्साही भरा होता है अगर देखने वाला निश्चित तौर पर अपने आप को जो गौरवान्वित महसूस करता है।
फरुवाही लोकनृत्य का इतिहास
फरुवाही लोकनृत्य लगभग 1500 वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है हमारे सैनिक युद्ध के उपरांत अपने साथियों के साथ में अपनी खुशी मनाने के लिए फरुवाही लोकनृत्य करते थे करतब करते थे जैसे लाठ जिसमें मुख्यतः नक्कारा. हारमोनियम. बांसुरी. करताल. झांच. मजीरा. के साथ नृत्य करते थे कलाकार धोती. बनियान. घुंघरू. गमछा पहनते थे।
- फरुवाही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है।
- फरुवाही नृत्य लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे ।
- इस विधा का चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है।
जनजाति के प्रमुख वाद्ययंत्र
यह आदिवासी कलाकारों का आभूषण है जैसे कथक नृत्य में जो स्थान पैरो में घुंघरू का होता है। इसी प्रकार आदिवासी कलाकारों का पैर में पहनकर छन छन की आवाज करने वाला लोहे का कड़ा जिसके अंदर लोहे की गोलियॉं होती हैं।
आदिवासी समुदायों में मादल को एक पूजनीय वाद्य के रूप में स्थान प्राप्त है, आदिवासी लोगों की मान्यता है कि इन्द्र भगवान की पूजा इसी मादल वाद्य को बजा के की जाती है। ये वाद्य देखने में मृदंग नुमा गले में टांग कर दोनों हाथों से बजाया जाता है।
इसको गुदुम्ब और घिसिया बाजा के नाम से से भी जाता जाता है, ये वाद्य एक छोटे नंगाड़े के रूप में गले में टॉंगकर रबड़ के ठोस टुकडे़ से बजाया हजाता है, इसमें बारह सिंधा की सींगो का प्रयोग किया गया है। इसको कलाकार घूमघाम कर, नाचकर, कलाबाजी खाते हुये बजाते हैं।
एक विशेष प्रकार की मिट्टी की छोटी नगड़िया नुमा साज, जिसे गले में टॉंगकर व नीचे बैठकर लकड़ी के दो ड़डों से बजाया जाता है।
यूॅं तो देखने में एक साधारण ठफ दिखाई देता है, लेकिन इस ठपले की खाल को मढ़ने के लिए इसकी तरफ नक्कारे की तरह बिनाई करके खाल को रोका जाता है, इस ठपले का वादन एक मोटी लगड़ी छड़ और एक पतली लकड़ी छड़ एक कंधे पर टॉंगकर नाच—नाच कर बजाते हैं।
इस वाद्य को घुघरा, झुनझुना के रूप से भी जानते हैं। देखने में यह एक गदानुमा होता है, जिसेके अन्दर लोहे या पीतल की छोटी-छोटी गोलियाॅं पड़ी होती हैं, जिसे हिलाने पर छन-छन की आवाज होती है।
इसे झाॅंझा, व बड़ा मंजीरा के रूप में भी जानते हैं, यह विशेष पीतल फूल धातु का होता है। इसके दो हिस्से होते हैं जिसे आपस में प्रहार करने पर ध्वनि होती है।
एक विशेष आकृति माप का ढोल जो अन्य ढोल से अलग दिखता है जो लकड़ी की दो छड़ों से विशेष वादन किया जाता है, इसका प्रयोग धार्मिक शादी बारात व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।
इसे मउहर बीन भी कहते है, देखने में यह एक लम्बी बांसुरी की तरह दिखता है लेकिन इसके बीच में, इसे बजाने के लिए एक विशेष छेद किया जाता है जिसमें हवा फूंक के माध्यम से स्वरों की उत्पत्ति होती हैे।
यू मेल शाहनाई से काफी भिन्न है, इसकी लम्बाई अधिकतम एक फीट होती है, इसके बजाने का पत्ता कलाकार स्वयं ताड़ के पत्ते से बनाता है, इसकी ध्वनि भी मूल शाहनाई से काफी भिन्न है।
खोल:
खोल चमड़े, मिट्टी, पर्चमेंट और चावल की धूल से बना एक परक्यूशन यंत्र है। यह वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है
- जौनसारी जनजाति
- लोक संस्कृति
- लोक संगीत एवं नृत्य
- वाद्य यन्त्र
- यह जनजाति मुख्य रूप से उत्तरखंड में पायी जाती है लेकिन उत्तर प्रदेश के पुरोला क्षेत्र में यह जनजाति पायी जाती है.
- जौंनसारी जनजाति को खस जाति का वंशज माना है. “खस लोग सामान्यता लंबे, सुंदर, गोरे चिट्टे, गुलाबी और पीले होते हैं. उनका सिर लंबा, नाक तीखी या लंबी पतली, ललाट खड़ा, आंखें धुंधली नीले बाल घुँघराले, छीटों वाली, तथा अन्य विशेषताओं वाले सुंदर ढंग से संवारे गये होते हैं. इस जनजाति की स्त्रियाँ तुलनात्मक दृष्टि से लंबी, छरहरी काया वाली और आकर्षक होती हैं.
- जौनसारी समुदाय के मुख्य त्यौहार बिस्सू (बैसाखी) , पंचाई (दशहरा), दियाई (दिवाली), नुणाई , अठोई आदि है ये दीपावली को एक माह बाद मनाते है
- हारुल, रासों, घुमसू , झेला, धीई, तांदी, मरोज , पौणाई आदि इनके प्रमुख्य नृत्य है
संगीत एवं नृत्य
- जट-जटिन
जट-जटिन लोककला एवं लोकनृत्य है। इसमें दो नाचने की टोली होती है, जो नाच-गान करके,नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। जट-जटिन भारत के तराई में एक लोकप्रिय लोक नृत्य है। जाट जटिन महिलाओं का नृत्य है, और मानसून के दौरान चांदनी रातों पर किया जाता है
- झिंझिया
झिझिया नृत्य तराई का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। तराई के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाले घड़े को लेकर नाचती हैं।
- झुमरा
थारू जनजाति का ये नृत्य तराइे क्षेत्र के मुख्य लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को थारू जन जातीय समुदाय द्वारा प्रमुख त्योहारों पर किया जाता है। होली, दीपावली दशहरा इत्यादि।
- करमा नृत्य
उपरोक्त सम्प्रदाय में करम देवता को इष्ट देवता माना गया, इनके सभी मांगलिक व धार्मिक कार्य अपने करम देवता की पूजा करके किए जाते हैं। इस सम्रपदाय में आज भी बलि पूजा को माना जाता है। इसके बाद इस विशेष नृत्य एक मान्यता ये भी है के इस सम्प्रदाय में सात विवाहित महिलाएं कदम्ब की डाली को विशेष पूजा, अर्चना के साथ स्थापित करती है तथा जो विशेष नृत्य इस अवसर पर किया जाता है उसे कर्मा नृत्य कहते हैं। इसमें महिला कलाकार नृत्य व गायन करती हैं व पुरूष कलाकार मादल बजाकर नृत्य करते हैं।
फरुवाही नृत्य
यह भारतीय इतिहास की पहली एक ऐसी नाच है जिसमें सिर्फ मर्द ही नाचते हैं और तमाम रूप से ऐसा रूप दिखाते हैं जिसमें सिर्फ जो वीर और उत्साही भरा होता है अगर देखने वाला निश्चित तौर पर अपने आप को जो गौरवान्वित महसूस करता है।
फरुवाही लोकनृत्य का इतिहास
फरुवाही लोकनृत्य लगभग 1500 वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है हमारे सैनिक युद्ध के उपरांत अपने साथियों के साथ में अपनी खुशी मनाने के लिए फरुवाही लोकनृत्य करते थे करतब करते थे जैसे लाठ जिसमें मुख्यतः नक्कारा. हारमोनियम. बांसुरी. करताल. झांच. मजीरा. के साथ नृत्य करते थे कलाकार धोती. बनियान. घुंघरू. गमछा पहनते थे।
- फरुवाही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है।
- फरुवाही नृत्य लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे ।
- इस विधा का चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है।
जनजाति के प्रमुख वाद्ययंत्र
यह आदिवासी कलाकारों का आभूषण है जैसे कथक नृत्य में जो स्थान पैरो में घुंघरू का होता है। इसी प्रकार आदिवासी कलाकारों का पैर में पहनकर छन छन की आवाज करने वाला लोहे का कड़ा जिसके अंदर लोहे की गोलियॉं होती हैं।
आदिवासी समुदायों में मादल को एक पूजनीय वाद्य के रूप में स्थान प्राप्त है, आदिवासी लोगों की मान्यता है कि इन्द्र भगवान की पूजा इसी मादल वाद्य को बजा के की जाती है। ये वाद्य देखने में मृदंग नुमा गले में टांग कर दोनों हाथों से बजाया जाता है।
इसको गुदुम्ब और घिसिया बाजा के नाम से से भी जाता जाता है, ये वाद्य एक छोटे नंगाड़े के रूप में गले में टॉंगकर रबड़ के ठोस टुकडे़ से बजाया हजाता है, इसमें बारह सिंधा की सींगो का प्रयोग किया गया है। इसको कलाकार घूमघाम कर, नाचकर, कलाबाजी खाते हुये बजाते हैं।
एक विशेष प्रकार की मिट्टी की छोटी नगड़िया नुमा साज, जिसे गले में टॉंगकर व नीचे बैठकर लकड़ी के दो ड़डों से बजाया जाता है।
यूॅं तो देखने में एक साधारण ठफ दिखाई देता है, लेकिन इस ठपले की खाल को मढ़ने के लिए इसकी तरफ नक्कारे की तरह बिनाई करके खाल को रोका जाता है, इस ठपले का वादन एक मोटी लगड़ी छड़ और एक पतली लकड़ी छड़ एक कंधे पर टॉंगकर नाच—नाच कर बजाते हैं।
इस वाद्य को घुघरा, झुनझुना के रूप से भी जानते हैं। देखने में यह एक गदानुमा होता है, जिसेके अन्दर लोहे या पीतल की छोटी-छोटी गोलियाॅं पड़ी होती हैं, जिसे हिलाने पर छन-छन की आवाज होती है।
इसे झाॅंझा, व बड़ा मंजीरा के रूप में भी जानते हैं, यह विशेष पीतल फूल धातु का होता है। इसके दो हिस्से होते हैं जिसे आपस में प्रहार करने पर ध्वनि होती है।
एक विशेष आकृति माप का ढोल जो अन्य ढोल से अलग दिखता है जो लकड़ी की दो छड़ों से विशेष वादन किया जाता है, इसका प्रयोग धार्मिक शादी बारात व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।
इसे मउहर बीन भी कहते है, देखने में यह एक लम्बी बांसुरी की तरह दिखता है लेकिन इसके बीच में, इसे बजाने के लिए एक विशेष छेद किया जाता है जिसमें हवा फूंक के माध्यम से स्वरों की उत्पत्ति होती हैे।
यू मेल शाहनाई से काफी भिन्न है, इसकी लम्बाई अधिकतम एक फीट होती है, इसके बजाने का पत्ता कलाकार स्वयं ताड़ के पत्ते से बनाता है, इसकी ध्वनि भी मूल शाहनाई से काफी भिन्न है।
खोल:
खोल चमड़े, मिट्टी, पर्चमेंट और चावल की धूल से बना एक परक्यूशन यंत्र है। यह वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है
- बुक्सा जनजाति
- लोक संस्कृति
- लोक संगीत एवं नृत्य
- वाद्य यन्त्र
- बुक्सा अथवा भोक्सा जनजाति उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में छोटी-छोटी ग्रामीण बस्तियों में निवास करती है।
- बुक्सा जनजाति की पंचायत के सर्वोच्च व्यक्ति को तखत कहा जाता है
- उत्तर प्रदेश में बुक्सा जनजाति विकास परियोजना 1983-84 में प्रारंभ की गयी
- बुक्सा लोग प्रमुख रूप से हिन्दी भाषा बोलते हैं। इनमें जो लोग लिखना-पढ़ना जानते हैं वे देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं।
- बुक्सा पुरुषों की वेशभूषा में धोती, कुर्ता, सदरी और सिर पर पगड़ी धारण करते हैं। नगरों में रहने वाले पुरुष गाँधी टोपी, कोट, ढीली पेन्ट और चमड़े के जूते, चप्पल आदि पहनते हैं। स्त्रियाँ पहले गहरे लाल, नीले या काले रंग की छींट का ढीला लहंगा पहनती थीं और चोली (अंगिया) के साथ ओढ़नी (चुनरी) सिर पर पहनती थीं, लेकिन अब स्त्रियों में साड़ी, ब्लाउज, स्वेटर एवं कार्कीगन का प्रचलन सामान्य हो गया है।
संगीत एवं नृत्य
- जट-जटिन
जट-जटिन लोककला एवं लोकनृत्य है। इसमें दो नाचने की टोली होती है, जो नाच-गान करके,नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। जट-जटिन भारत के तराई में एक लोकप्रिय लोक नृत्य है। जाट जटिन महिलाओं का नृत्य है, और मानसून के दौरान चांदनी रातों पर किया जाता है
- झिंझिया
झिझिया नृत्य तराई का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। तराई के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाले घड़े को लेकर नाचती हैं।
- झुमरा
थारू जनजाति का ये नृत्य तराइे क्षेत्र के मुख्य लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को थारू जन जातीय समुदाय द्वारा प्रमुख त्योहारों पर किया जाता है। होली, दीपावली दशहरा इत्यादि।
- करमा नृत्य
उपरोक्त सम्प्रदाय में करम देवता को इष्ट देवता माना गया, इनके सभी मांगलिक व धार्मिक कार्य अपने करम देवता की पूजा करके किए जाते हैं। इस सम्रपदाय में आज भी बलि पूजा को माना जाता है। इसके बाद इस विशेष नृत्य एक मान्यता ये भी है के इस सम्प्रदाय में सात विवाहित महिलाएं कदम्ब की डाली को विशेष पूजा, अर्चना के साथ स्थापित करती है तथा जो विशेष नृत्य इस अवसर पर किया जाता है उसे कर्मा नृत्य कहते हैं। इसमें महिला कलाकार नृत्य व गायन करती हैं व पुरूष कलाकार मादल बजाकर नृत्य करते हैं।
फरुवाही नृत्य
यह भारतीय इतिहास की पहली एक ऐसी नाच है जिसमें सिर्फ मर्द ही नाचते हैं और तमाम रूप से ऐसा रूप दिखाते हैं जिसमें सिर्फ जो वीर और उत्साही भरा होता है अगर देखने वाला निश्चित तौर पर अपने आप को जो गौरवान्वित महसूस करता है।
फरुवाही लोकनृत्य का इतिहास
फरुवाही लोकनृत्य लगभग 1500 वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है हमारे सैनिक युद्ध के उपरांत अपने साथियों के साथ में अपनी खुशी मनाने के लिए फरुवाही लोकनृत्य करते थे करतब करते थे जैसे लाठ जिसमें मुख्यतः नक्कारा. हारमोनियम. बांसुरी. करताल. झांच. मजीरा. के साथ नृत्य करते थे कलाकार धोती. बनियान. घुंघरू. गमछा पहनते थे।
- फरुवाही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है।
- फरुवाही नृत्य लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे ।
- इस विधा का चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है।
जनजाति के प्रमुख वाद्ययंत्र
यह आदिवासी कलाकारों का आभूषण है जैसे कथक नृत्य में जो स्थान पैरो में घुंघरू का होता है। इसी प्रकार आदिवासी कलाकारों का पैर में पहनकर छन छन की आवाज करने वाला लोहे का कड़ा जिसके अंदर लोहे की गोलियॉं होती हैं।
आदिवासी समुदायों में मादल को एक पूजनीय वाद्य के रूप में स्थान प्राप्त है, आदिवासी लोगों की मान्यता है कि इन्द्र भगवान की पूजा इसी मादल वाद्य को बजा के की जाती है। ये वाद्य देखने में मृदंग नुमा गले में टांग कर दोनों हाथों से बजाया जाता है।
इसको गुदुम्ब और घिसिया बाजा के नाम से से भी जाता जाता है, ये वाद्य एक छोटे नंगाड़े के रूप में गले में टॉंगकर रबड़ के ठोस टुकडे़ से बजाया हजाता है, इसमें बारह सिंधा की सींगो का प्रयोग किया गया है। इसको कलाकार घूमघाम कर, नाचकर, कलाबाजी खाते हुये बजाते हैं।
एक विशेष प्रकार की मिट्टी की छोटी नगड़िया नुमा साज, जिसे गले में टॉंगकर व नीचे बैठकर लकड़ी के दो ड़डों से बजाया जाता है।
यूॅं तो देखने में एक साधारण ठफ दिखाई देता है, लेकिन इस ठपले की खाल को मढ़ने के लिए इसकी तरफ नक्कारे की तरह बिनाई करके खाल को रोका जाता है, इस ठपले का वादन एक मोटी लगड़ी छड़ और एक पतली लकड़ी छड़ एक कंधे पर टॉंगकर नाच—नाच कर बजाते हैं।
इस वाद्य को घुघरा, झुनझुना के रूप से भी जानते हैं। देखने में यह एक गदानुमा होता है, जिसेके अन्दर लोहे या पीतल की छोटी-छोटी गोलियाॅं पड़ी होती हैं, जिसे हिलाने पर छन-छन की आवाज होती है।
इसे झाॅंझा, व बड़ा मंजीरा के रूप में भी जानते हैं, यह विशेष पीतल फूल धातु का होता है। इसके दो हिस्से होते हैं जिसे आपस में प्रहार करने पर ध्वनि होती है।
एक विशेष आकृति माप का ढोल जो अन्य ढोल से अलग दिखता है जो लकड़ी की दो छड़ों से विशेष वादन किया जाता है, इसका प्रयोग धार्मिक शादी बारात व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।
इसे मउहर बीन भी कहते है, देखने में यह एक लम्बी बांसुरी की तरह दिखता है लेकिन इसके बीच में, इसे बजाने के लिए एक विशेष छेद किया जाता है जिसमें हवा फूंक के माध्यम से स्वरों की उत्पत्ति होती हैे।
यू मेल शाहनाई से काफी भिन्न है, इसकी लम्बाई अधिकतम एक फीट होती है, इसके बजाने का पत्ता कलाकार स्वयं ताड़ के पत्ते से बनाता है, इसकी ध्वनि भी मूल शाहनाई से काफी भिन्न है।
खोल:
खोल चमड़े, मिट्टी, पर्चमेंट और चावल की धूल से बना एक परक्यूशन यंत्र है। यह वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है
- खरवार जनजाति
- लोक संस्कृति
- लोक संगीत एवं नृत्य
- वाद्य यन्त्र
- उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, वाराणसी, सोनभद्र, गाजीपुर, बलिया, देवरिया जिले में खरवार जनजाति निवास करती है। इनका मूल क्षेत्र बिहार का पलामू और अठारह हजारी क्षेत्र है।
- सूरजवंशी, पत्बन्धी, दौलतबंधी, खेरी, मौगति, आर्मिया इस जनजाति की उपजातियां है
- बधउस, वनसंती, दुल्हादेव, घमसान, गोरइया आदि इनके प्रमुख देवता है
- खरवार जाति के लोग साधारणतः टेहुन तक धोती, बंडी एवं सिर पर पगड़ी पहनते हैं तथा स्त्रियाँ साड़ी पहनती हैं। इनके आभूषणों में हैकल, हँसुली, बाजूबन्द, कड़ा, नथिनी, बरेखा, गुरिया या नँगा की माला आदि मुख्य हैं।
- खरवार जनजाति मुख्यतः हिन्दू धर्म के रीति रिवाजों का पालन करती है।
- खरवार जनजाति के लोग माँसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार के होते हैं।
- खरवार जनजाति का प्रमुख नृत्य करमा है
संगीत एवं नृत्य
- जट-जटिन
जट-जटिन लोककला एवं लोकनृत्य है। इसमें दो नाचने की टोली होती है, जो नाच-गान करके,नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। जट-जटिन भारत के तराई में एक लोकप्रिय लोक नृत्य है। जाट जटिन महिलाओं का नृत्य है, और मानसून के दौरान चांदनी रातों पर किया जाता है
- झिंझिया
झिझिया नृत्य तराई का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। तराई के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाले घड़े को लेकर नाचती हैं।
- झुमरा
थारू जनजाति का ये नृत्य तराइे क्षेत्र के मुख्य लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को थारू जन जातीय समुदाय द्वारा प्रमुख त्योहारों पर किया जाता है। होली, दीपावली दशहरा इत्यादि।
- करमा नृत्य
उपरोक्त सम्प्रदाय में करम देवता को इष्ट देवता माना गया, इनके सभी मांगलिक व धार्मिक कार्य अपने करम देवता की पूजा करके किए जाते हैं। इस सम्रपदाय में आज भी बलि पूजा को माना जाता है। इसके बाद इस विशेष नृत्य एक मान्यता ये भी है के इस सम्प्रदाय में सात विवाहित महिलाएं कदम्ब की डाली को विशेष पूजा, अर्चना के साथ स्थापित करती है तथा जो विशेष नृत्य इस अवसर पर किया जाता है उसे कर्मा नृत्य कहते हैं। इसमें महिला कलाकार नृत्य व गायन करती हैं व पुरूष कलाकार मादल बजाकर नृत्य करते हैं।
फरुवाही नृत्य
यह भारतीय इतिहास की पहली एक ऐसी नाच है जिसमें सिर्फ मर्द ही नाचते हैं और तमाम रूप से ऐसा रूप दिखाते हैं जिसमें सिर्फ जो वीर और उत्साही भरा होता है अगर देखने वाला निश्चित तौर पर अपने आप को जो गौरवान्वित महसूस करता है।
फरुवाही लोकनृत्य का इतिहास
फरुवाही लोकनृत्य लगभग 1500 वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है हमारे सैनिक युद्ध के उपरांत अपने साथियों के साथ में अपनी खुशी मनाने के लिए फरुवाही लोकनृत्य करते थे करतब करते थे जैसे लाठ जिसमें मुख्यतः नक्कारा. हारमोनियम. बांसुरी. करताल. झांच. मजीरा. के साथ नृत्य करते थे कलाकार धोती. बनियान. घुंघरू. गमछा पहनते थे।
- फरुवाही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है।
- फरुवाही नृत्य लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे ।
- इस विधा का चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है।
जनजाति के प्रमुख वाद्ययंत्र
यह आदिवासी कलाकारों का आभूषण है जैसे कथक नृत्य में जो स्थान पैरो में घुंघरू का होता है। इसी प्रकार आदिवासी कलाकारों का पैर में पहनकर छन छन की आवाज करने वाला लोहे का कड़ा जिसके अंदर लोहे की गोलियॉं होती हैं।
आदिवासी समुदायों में मादल को एक पूजनीय वाद्य के रूप में स्थान प्राप्त है, आदिवासी लोगों की मान्यता है कि इन्द्र भगवान की पूजा इसी मादल वाद्य को बजा के की जाती है। ये वाद्य देखने में मृदंग नुमा गले में टांग कर दोनों हाथों से बजाया जाता है।
इसको गुदुम्ब और घिसिया बाजा के नाम से से भी जाता जाता है, ये वाद्य एक छोटे नंगाड़े के रूप में गले में टॉंगकर रबड़ के ठोस टुकडे़ से बजाया हजाता है, इसमें बारह सिंधा की सींगो का प्रयोग किया गया है। इसको कलाकार घूमघाम कर, नाचकर, कलाबाजी खाते हुये बजाते हैं।
एक विशेष प्रकार की मिट्टी की छोटी नगड़िया नुमा साज, जिसे गले में टॉंगकर व नीचे बैठकर लकड़ी के दो ड़डों से बजाया जाता है।
यूॅं तो देखने में एक साधारण ठफ दिखाई देता है, लेकिन इस ठपले की खाल को मढ़ने के लिए इसकी तरफ नक्कारे की तरह बिनाई करके खाल को रोका जाता है, इस ठपले का वादन एक मोटी लगड़ी छड़ और एक पतली लकड़ी छड़ एक कंधे पर टॉंगकर नाच—नाच कर बजाते हैं।
इस वाद्य को घुघरा, झुनझुना के रूप से भी जानते हैं। देखने में यह एक गदानुमा होता है, जिसेके अन्दर लोहे या पीतल की छोटी-छोटी गोलियाॅं पड़ी होती हैं, जिसे हिलाने पर छन-छन की आवाज होती है।
इसे झाॅंझा, व बड़ा मंजीरा के रूप में भी जानते हैं, यह विशेष पीतल फूल धातु का होता है। इसके दो हिस्से होते हैं जिसे आपस में प्रहार करने पर ध्वनि होती है।
एक विशेष आकृति माप का ढोल जो अन्य ढोल से अलग दिखता है जो लकड़ी की दो छड़ों से विशेष वादन किया जाता है, इसका प्रयोग धार्मिक शादी बारात व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।
इसे मउहर बीन भी कहते है, देखने में यह एक लम्बी बांसुरी की तरह दिखता है लेकिन इसके बीच में, इसे बजाने के लिए एक विशेष छेद किया जाता है जिसमें हवा फूंक के माध्यम से स्वरों की उत्पत्ति होती हैे।
यू मेल शाहनाई से काफी भिन्न है, इसकी लम्बाई अधिकतम एक फीट होती है, इसके बजाने का पत्ता कलाकार स्वयं ताड़ के पत्ते से बनाता है, इसकी ध्वनि भी मूल शाहनाई से काफी भिन्न है।
खोल:
खोल चमड़े, मिट्टी, पर्चमेंट और चावल की धूल से बना एक परक्यूशन यंत्र है। यह वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है
उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जनजातियों में से एक अगरिया लोग हैं। ब्रिटिश शासन के वर्षों के दौरान मिर्जापुर और उसके आसपास रहने वाले लोग लोहे के खनन में शामिल थे।
अगेरिया जनजाति का समाज
यद्यपि वे एक समरूप समूह नहीं बनाते हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश मुख्य रूप से द्रविड़ भाषी समूह के हैं। अगेरिया जनजातियों को विभिन्न उप जातियों में विभाजित कर दिया गया है, लोहार जातियां भी इनके बीच हैं। अन्य में सोनुरेनी, धुरुआ, टेकाम, मरकाम, उिका, पुरताई, मराई आदि शामिल हैं। इन अतिरंजित समूहों के नाम गोंड जनजातियों के समान हैं। इन समूहों के नाम जानवरों, पौधों और प्रकृति की अन्य वस्तुओं के नामों से लिए गए हैं। उनके समाजों में, एक ही उप-जाति के भीतर विवाह निषिद्ध है। मुख्य भाषा जो वे बोलते हैं, स्पष्ट रूप से, प्रसिद्ध द्रविड़ियन आदिवासी भाषा समूह से भी उत्पन्न हुई है। पथरिया अगेरिया और खुंटिया अगरिया में अगेरिया जनजाति के दो विलक्षण विभाजन हैं। अगरिया जनजाति मुख्य रूप से पेशे से लोहे की स्मेल्टर है। कुछ मुट्ठी भर अग्रिया जनजातियाँ भी हैं जो शहरों में बस गए हैं और विभिन्न व्यापारिक व्यवसायों जैसे मजदूरों, राजमिस्त्री, किराना आदि के लिए अनुकूलित हैं। अगरिया संस्कृति के सम्मेलनों के अनुसार, पुरुष और महिलाएं दोनों अयस्क एकत्र करते हैं। बिलासपुर जिले में केवल पुरुष ही इस कार्य को करते हैं। रात को महिलाएं सफाई करती हैं और अगले दिन भट्टों को तैयार भी करती हैं। विशेष बेलनाकार वेंट मिट्टी से हवा के लिए भट्ठी के लिए मिट्टी से बनाये जाते हैं। हीटिंग द्वारा धातुओं को निकालने के दौरान, महिलाएं धौंकनी का उपयोग करती हैं और पुरुष हथौड़े को पाउंड करते हैं और इस प्रकार एड़ियों पर अयस्क को मोडते हैं। एक नई भट्टी की तैयारी एक महत्वपूर्ण पारिवारिक घटना है। एक परिवार के सभी सदस्य शामिल हो रहे हैं। इसके अंत में भट्टी के पास भी मंत्र (प्रार्थना) का पाठ किया जाता है। जहां तक अगरिया समुदाय की जीवनशैली का सवाल है, तो समाज पितृसत्तात्मक शासन का पालन करता है। पिता आमतौर पर शादियां करते हैं। अगरिया आदिवासी समुदायों में, शादी का प्रस्ताव सबसे पहले लड़के के पिता द्वारा लड़की के घर भेजा जाता है। अगर लड़की के पिता शादी के प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं तो लड़के के पिता उनके घर जाते हैं जहां उनका जोरदार स्वागत किया जाता है। उनके समुदाय में, शादी समारोह आमतौर पर बरसात के मौसम में होते हैं। आमतौर पर मानसून के मौसम में शादियां आयोजित की जाती हैं क्योंकि इस तथ्य के कारण कि लोहे के गलाने को स्थगित किया जाता है और कोई काम नहीं होता है। विधवा पुन: विवाह की अनुमति है। स्वर्गीय पति के छोटे भाई, खासकर अगर वह एक कुंवारा है, दूसरी शादी के लिए सबसे योग्य माना जाता है। व्यभिचार, अपव्यय, या दुर्व्यवहार के आधार पर किसी भी पार्टी के लिए तलाक स्वीकार्य है। उनके समाज में कई जन्म और मृत्यु संस्कारों का पालन किया जाता है।
अगरिया जनजाति की संस्कृति
अगरिया समाज के त्यौहार हैं, अपने स्वयं के धर्म की परंपरा को प्रभावित करते हैं। उनके पैतृक देव दूल्हा देव हैं, और त्यौहारों के दौरान अगरिया समुदाय विभिन्न जानवरों जैसे बकरी, मुर्गी आदि की बलि देते हैं।
भारत में लोगों का एक जातीय समुदाय अहेरिया मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्य में पाया जाता है। 1920 के दशक से पहले वे मुख्य रूप से शिकारी थे लेकिन बाद में वे किसान बन गए।
आमतौर पर उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पाई जाती है। बैगा जनजाति की कुछ उपजातियाँ भी हैं जैसे नाहर, बिझवार, नरोटिया, कड़ भैना, राय भैना, भरोटिया आदि। यह जनजाति ‘स्थानांतरण खेती’ करती है।
बैगा जनजाति मध्यप्रांत के जनजातियों में विशेष स्थान रखता है। इस जनजाति के विकास स्तर को देखते हुए शासन ने इसे विशेष पिछड़ी जनजाति समूह में रखा है। विशेष पिछड़ी जनजाति होने के कारण बैगा जनजाति को सरकार का सरक्षण प्राप्त है जिसके फलस्वरूप इस जनजाति के लिए अनेक शासकीय योजनाये चलाये जा रहें है। बैगा जनजाति जितनी प्राचीन जनजाति है उतनी ही प्राचीन बैगाओं की संस्कृति भी है। बैगा जनजाति अपने संस्कृति को संजोये हुए है। इनका रहन-सहन, खान-पान अत्यंत सादा होता है। बैगा जनजाति के लोग वृक्ष की पूजा करते है तथा बूढ़ा देव एवं दूल्हा देव को अपना देवता मानते है। बैगा झाड़-फूक एवं जादू-टोना में विश्वास करते है। इनकी वेश-भूषा अत्यंत अल्प होती है। बैगा पुरुष मुख्य रूप से एक लंगोट तथा सर पे गमछा बांधते है, वहीं बैगा महिलाएं एक साड़ी तथा पोलखा का प्रयोग करते है। किन्तु वर्तमान समय में मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले नौजवान युवक शर्ट-पैंट का भी प्रयोग करने लगे है। बैगा जनजाति की महिलाएं आभूषण प्रिय होती हैं। बैगा महिलाएं आभूषण के साथ-साथ गोदना भी गुदवाती है। इनकी संस्कृति में गोदना का अत्यधिक महत्व है। बैगा महिलाएं शरीर के विभिन्न हिस्से में गोदना गुदवाती हैं। बैगा जनजाति का मुख्या व्यवसाय वनोपज संग्रह, पशुपालन, खेती तथा ओझा का कार्य करना है। आधुनिकता के दौर में बैगा जनजाति की संस्कृति में भी आधुनिकता का समावेश हो रहा है। बैगा अब सघन वन, कंदराओं तथा शिकार को छोड़ कर मैदानी क्षेत्रों में रहना तथा कृषि कार्य करना प्रारंभ कर रहे है। किन्तु बैगा अपने आप को जंगल का राजा और प्रथम मानव मानते है, इनका मानना है कि इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा हुई है। बैगाओं के उत्पत्ति के संबंद में अनेक किवदंतियाँ भी विद्मान है, इन किवदंतियों के माध्यम से ये अपने उत्पत्ति संबंधी अवधारणाओं को संजो कर रखे हुवे है। बैगा अपने आप को आदिम पुरुष कहते है, उनका मानना है की वही पृथ्वी का प्रथम मानव है। बैगाओं का ही जन्म सर्वप्रथम हुआ है, वे ही पृथ्वी मे मानव जाति को लाने वाले है उनका सम्बन्ध प्रथम मानव से है। इस प्रकार इस शोध पत्र के माध्यम से बैगाओं के उत्पत्ति संबाधित अवधारणाओं का ऐतिहासिक विश्लेषण किया किया गया है।
- यह जनजाति सोनभद्र में पाई जाती है
शब्दकुंजी - गमछा, पोलखा, गोदना, ओझा, बेवर, कंदरा, कुल्हाड़ी, मंद, पगडण्डी, मीनार, नागा, भुईयां, वैद्य, लंगोट
बैगा जनजाति का ऐतिहासिक अवलोकन
बैगा जनजाति के सम्बन्ध में सर्वप्रथम 1778 ई० में ब्लूम फील्ड ने निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया है-
- बैगा जंगल काटकर बेवर खेती करते है।
- ये ओझा का कार्य करते है और जंगली जड़ी-बूटी से रोगों का उपचार करते है।
- ये लोग बांस से चटाई और अन्य उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते है।
- साथ ही साथ जंगलों से शहद, कंदमूल और हर्रा इकट्ठा करते है तथा शिकार करना और मछली पकड़ने का कार्य करते है।
बैगा जनजाति के उत्पत्ति संबंधित किवदंतियाँ एवं अवधारणायेंः
बैगा जनजाति में उनकी उत्पत्ति सम्बंधी अनेक किवदंतियाँ विद्यमान है जैसे-‘प्राम्भ में भगवान ने नागा बैगा और नागी बैगिन को बनाया, नागा बैगा और नागी बैगिन जंगल में रहने चले गये। कुछ समय पश्चात दोनों की दो संताने हुई। पहला संतान बैगा और दूसरा संतान गोंड़। दोनों संतानों ने अपने बहनों से विवाह कर लिया। आगे चलकर मनुष्य जाति की उत्पत्ति इन्ही दोनों दम्पत्तियों से हुई। पहले दंपत्ति से बैगा हुए और दूसरे दंपत्ति से गोंड़ उत्पन्न हुए।8 बैगा जनजाति अपने आदि पुरुष नागा बैगा को मानते है किन्तु ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव होने के कारण नागा बैगा के निवास एवं उत्पत्ति को प्रमाणित करना अत्यंत मुश्किल है। एक बैगा किवदन्ती के अनुसार बैगा जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में यह भी मान्यता है कि - प्रारंभ में पानी ही पानी था भगवान पत्ते में बैठे थे। एक बार भगवान धरती ढूंढे लेकिन धरती मिली नहीं तब ब्रम्हा जी ने अपने छाती के मैल से कौआ का निर्माण किया और कौंवे से बोले कि जाओ और धरती का पता लगाओ। और कौआ उड़ गया। उड़ते-उड़ते उसे केकड़ा दिखा, कौआ केकड़ा के पास गया और बोला झूठ मत बोलना और मुझे धरती की मिट्टी दो। केकड़ा कौआ को दबा कर पाताल लोक ले गया और वहां के राजा ने कौआ को मिट्टी दिया। केकड़ा कौआ को लेकर पाताल लोक से बाहर निकले और कौआ भगवान के पास गया और मिट्टी दे दिया। भगवान मिट्टी को चारो तरफ बिखेर दिए और वही धरती बन गई। भगवान धरती को देखने के लिए गए तब धरती हिलने लगी। फिर भगवान ने अगरिया बनाया, अगरिया ने लोहे की कीलें बनाई और उसे चारो कोने में ठोकने के लिए भगवान ने नागा बैगा बनाया। इसी नागा बैगा ने धरती के चारो तरफ कील ठोक दिया। तभी से बैगा धरती की रक्षा कर रहे है।9 इस किवदंती के अनुसार ब्रम्हा जी ने नागा बैगा बनाया था जो धरती की रक्षा करे।
अनुसूचित जनजाति का एक हिस्सा बेलदार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं।
बिंद जनजाति उत्तर प्रदेश में पाई जाती है और अन्य पिछड़ी जाति से संबंधित है। इस समुदाय का दावा है कि वे सिम्हा समुदाय से हैं और बिहार में बिन सहित अन्य जातियों से अलग हैं। इनकी उत्पत्ति भारत के मध्य भाग में स्थित विंध्य पहाड़ियों से हुई है।
उत्तर भारत में बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों में पाई जाने वाली चेरो एक अनुसूचित जाति है, एक ऐसा समुदाय जो मूल रूप से चंद्रवंशी राजपूत होने का दावा करता है। वे आदिवासी समुदायों में से एक हैं जो उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी हिस्सों जैसे कोल और भर के निवासी हैं।
यह जनजाति सोनभद्र , वाराणसी में पाई जाती है
घासिया उत्तर प्रदेश के दक्षिणी भागों में सोनभद्र और मिर्जापुर के कई आदिवासी समुदायों में से एक है।
मुख्य रूप से इलाहाबाद, वाराणसी, बांदा और मिर्जापुर जिलों में पाई जाने वाली कोल उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है। यह समुदाय लगभग 5 शताब्दी पहले भारत के मध्य भागों से पलायन कर गया था।
झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में पाई जाने वाली अनुसूचित जनजाति कोरवा आर्थिक और सामाजिक रूप से गरीब समुदाय है। वे अलग-थलग जनजातियाँ हैं और उनमें से अधिकांश शिकारी संग्रहकर्ता हैं।
- सहरिया जनजाति
- पनिका / पंखा
- भुइया / भुनिया
- गोंड जनजाति
- भोटिया
- राजी
- पठारी
- पहरिया
सहरिया जनजाति
सहरिया समुदाय के पारंपरिक व्यवसाय में शहद इकट्ठा करना, लकड़ी काटना, खनन करना, टोकरियाँ बनाना, पत्थर तोड़ना आदि शामिल हैं क्योंकि वे अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से जंगलों पर निर्भर हैं। अनिवार्य रूप से हिंदू धर्म के अनुयायी, सहरियाओं में कई देवता भी हैं जैसे गोंड देवी, भवानी, बीजासुर और सूरीनी
उत्तर प्रदेश में जनजातीय स्थिति
अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की घोषणा किसकी याद ताजा करती है? औपनिवेशिक प्रशासनिक विचार हमारे भारतीय संविधान में परिलक्षित होता है। इसके अनुसार सरकार की 2011 की जनगणना के प्राथमिक डेटा। भारत की हमारी कुल जनसंख्या देश 1,028,737,436 है। इस जनसंख्या में से 8.2 प्रतिशत अनुसूचित जाति के हैं जनजाति अगर हम राज्यों और संघ में अनुसूचित जनजाति की आबादी को देखें उनमें से अधिकांश क्षेत्र उत्तर-पूर्वी राज्य मिजोरम में रहते हैं, मेघालय और नागालैंड और लक्षद्वीप द्वीप। तुलनात्मक रूप से अगर हम लेते हैं अविभाजित उत्तर प्रदेश के मामले में आदिवासी आबादी बहुत कम थी। फिर जब राज्य विभाजित उत्तराखंड में एसटी की प्रमुख आबादी थी।
उत्तर प्रदेश में 107963 अनुसूचित जनजाति रह गई, जो कि वहां की जनसंख्या का केवल 0.1% है राज्य। हालांकि यह दिलचस्प है कि 2002 में तत्कालीन सरकार ने घोषणा की थी कुछ नई अनुसूचित जनजाति। अब इसका पुन: विश्लेषण करना एक महत्वपूर्ण कार्य होगा जनसंख्या परिदृश्य (2011 की जनगणना के अनुसार) उपरोक्त आँकड़ों को ध्यान में रखते हुए वे निस्संदेह उत्तर में अल्पसंख्यक हैं प्रदेश। लेकिन नई घोषणा का कारण जो भी हो, यह एक कड़वी सच्चाई है कि ये लोग गरीबी, कर्ज, भूख, अकाल, गंभीर उद्योगपतियों और खनिकों के हाथों शोषण। उनकी दयनीय स्थिति निरक्षरता और अन्य विकास उपायों के कारण अप्रतिनिधित्व। आश्चर्यजनक रूप से उत्तर प्रदेश की नव घोषित जनजाति पर 2019 तक कोई बड़ा कार्य नहीं हुआ है
- यह जनजाति ललितपुर सोनभद्र में पाई जाती है।
- कुछ अन्य जनजातियां जैसी बेंगा पंखा अंगरिया पठारी भैया चेरो सोनभद्र में पाई जाती है।
- पंखा या पानी का यह मिर्जापुर में भी पाई जाती है।
- चेरो यह चंदौली में भी पाई जाती है।
- यह शबरी के वंशज माने जाते हैं।
- इनका संबंध महाभारत काल से है।
- यह जनजाति सोनभद्र और मिर्जापुर में पाई जाती है।
- इस जनजाति के लोग सर्वाधिक ईमानदार होते हैं।
- यह कबीरपंथी होते हैं।
- यह जनजाति सोनभद्र में पाई जाती है
- यह सबसे पुरानी और भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है।
- इसका संबंध रावण खानदान से है।
- धुरिया, पठारी , राजगोंड (1) वाराणसी (2) सोनभद्र (3) मिर्जापुर (4) जौनपुर (5) मऊ (6) बलिया (7) देवरिया (8) गोरखपुर (9) आजमगढ़ (10) सिद्धार्थनगर (11) महराजगंज (12) बस्ती (13) गाजीपुर आदि शहरों में यह जनजाति पाई जाती है।
- यह जनजाति सोनभद्र में पाई जाती है
- यह जनजाति सोनभद्र में पाई जाती है