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संस्थान

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लोक कला जन-मानस कि विचारधारा, आत्म चिंतन एवं जीवन शैली की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है , जो क्षेत्रीय सर्जना का अप्रतिम उदहारण प्रस्तुत करते हुए मानवीय मूल्यों के साथ अनुभूत , कल्पना एवं जन विश्वास का सम्मिश्रण है | सहजता, सादापन, सरलता एवं आत्मसंतोष इनकी मूल विशेषता है | लोक कला के विभिन्न स्वरुप है जो ग्रामों एवं नगरों में विद्यमान है, इनके पृष्ठभूमि में लोक गाथा, लोक धर्म एवं लोक परंपरा महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करते है, जो मूलतः प्रकृति पर निर्भर है, न कि बाज़ारवाद पर | पारिभाषिक रूप से 'लोक' का तात्पर्य ऐसी जनता जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता, पांडित्य चेतना अथवा अहंकार से शून्य है तथा परंपरा के प्रवाह में जीवित है | भारतीय परंपरा में 'लोक' पूर्वजों एवं प्रकृति से जुड़ा हुआ है जो अतीत एवं वर्तमान से जुड़कर भविष्य के लिए सन्नध रहता है | "प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्न: " वस्तुतः लोक में अनुष्ठानिक कार्यों कि प्रधानता होती है, जिसमें चिंतन के व्यापक अर्थ निहित होते है तथा लोकहित का भाव उसके स्वरुप का निर्धारण करते है | लोक कला में उक्त चिंतन, भाव एवं अनुष्ठानों से जुड़े प्रदर्श एवं प्रसंग को नियोजित रूप से संरक्षित एवं संवर्ध्दित किया जाना संस्थान का मुख्य उद्देश्य है |

लोक के मूल तत्व

* भिन्नता में एकता |

* बाह्य रूप में परिवर्तन पर तात्विक एकता |

* प्रकृति कि उपासना |

* अमर सत्य का, जो सदा सरल होता है पालन |

* सब प्रकार कि सद्विद्या और कला-कौशल कि उन्नति |

* आध्यात्मिक विकास |

* संतों, तत्व-ज्ञानियों, महापुरूषों का युग-युगांतर से अटूट प्रादुर्भाव |

* ज्ञान कि जिज्ञासा जहाँ से प्राप्त हो, उसका ग्रहण |

* प्रजा-पालक शासक |