- संक्षिप्त विवरण
- पूर्वांचल की संस्कृति
- सांस्कृतिक स्थलचिन्ह
- संगीत एवं नृत्य
पूर्वांचल की संस्कृति
पूर्वांचल भारत के सबसे प्राचीन क्षेत्रों में से एक है, जिसकी पहचान है, यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और कला पूर्वांचल के मुख्यतः तीन भाग हैं- पश्चिम में पूर्वी अवधी क्षेत्र, पूर्व में पश्चिमी-भोजपुरी क्षेत्र और उत्तर भाग में तराई क्षेत्र है। भोजपुरी इस क्षेत्र क्षेत्र की प्रमुख भाषा या बोली है। हालाँकि इस क्षेत्र में हिंदी और भोजपुरी के अलावा अवधी भी बोली जाती हैं। एक तरफ यहाँ विश्व का प्राचीनतम शहर, भारतीय संगीत की राजधानी बनारस है तो दूसरी तरफ भोजपुरी लोक कला और संस्कृति का केंद्र गोरखपुर है
सांस्कृतिक स्थलचिन्ह
- वाराणसी
इसे ‘बनारस‘ और ‘काशी‘ भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में शिवनगरी के साथ साथ सवार्धिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है, और अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध1⁄2 एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक है।
- सारनाथ
सारनाथ, काशी अथवा वाराणसी के १० किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था । यह स्थान बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थों में से एक है। इसके साथ ही सारनाथ को जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में भी महत्वपूर्ण स्थान है। जैन ग्रन्थों में इसे ’सिंहपुर’ कहा गया है और माना जाता है कि जैन धर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म यहाँ से थोड़ी दूर पर हुआ था।
- कुशीनगर
कुशीनगर एवं कसया बाजार उत्तर प्रदेश के उत्तरी-पूर्वी सीमान्त इलाके में स्थित ऐतिहासिक स्थल है। यह बौद्ध तीर्थ है जहाँ गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था। यहाँ अनेक सुन्दर बौद्ध मन्दिर हैं।
- गोरखपुर
यह एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मशहूर है जो बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, जैन और सिख सन्तों की साधनास्थली रहा। यहाँ का प्रसिद्ध गोरखनाथ मन्दिर नाथ सम्प्रदाय की पीठ है। यह महान सन्त परमहंस योगानंद जी का जन्म स्थान भी है ।
- गाजीपुर
यह क्षेत्र पूरब अंचल के छोर पर है, यहाँ का धोबिया नृत्य अत्यंत प्रचलित व लोक लुभावन नृत्य है।
- भदोही
ये पूर्वांचल कि क्राफ्ट नगरी है, जहाँ दरी के कारखाने हथकरघा केंद्र है जो विश्व विख्यात है।
संगीत एवं नृत्य
यहाँ की संगम नगरी इलाहाबाद, विभिन्न कुटीर उद्योग जैसे बनारसी रेशमी साड़ी, कपड़ा उद्योग, भदोही का कालीन उद्योग हस्तशिल्प और बनारसी पान विश्वप्रसिद्ध है।
यहाँ की संस्कृति में गायन, नृत्य और संगीत अत्यंत आकर्षक है, लोक संगीत, भजन या भक्ति गीतों के अलावा मौसम के साथ विशिष्ट प्रकार के गीत यहाँ की संस्कृति का हिस्सा हैं। जैसे लोक गीतों में कजरी और बिरहा गाने काफी प्रचलित हैं, साथ ही सोहर और झूमर गाने भी बहुत लोकप्रिय हैं, जो स्थानीय भोजपुरी भाषा में गाये जाते हैं।
बनारस का कथक और तबला घराना, बांसुरी वादन यहाँ की शास्त्रीय नृत्य और संगीत शैली का हिस्सा हैं।
यहाँ की संस्कृति में गायन, नृत्य और संगीत अत्यंत आकर्षक है, लोक संगीत, भजन या भक्ति गीतों के अलावा मौसम के साथ विशिष्ट प्रकार के गीत यहाँ की संस्कृति का हिस्सा हैं। जैसे लोक गीतों में कजरी और बिरहा गाने काफी प्रचलित हैं, साथ ही सोहर और झूमर गाने भी बहुत लोकप्रिय हैं, जो स्थानीय भोजपुरी भाषा में गाये जाते हैं।
बनारस का कथक और तबला घराना, बांसुरी वादन यहाँ की शास्त्रीय नृत्य और संगीत शैली का हिस्सा हैं।
- कला और हस्तशिल्प वाराणसी भारतीय कला और संस्कृति का एक पूरा संग्रहालय प्रस्तुत करता है, वाराणसी में इतिहास के बदलते समय और आंदोलनों को महसूस किया जा सकता है। यहां कला के विविध रूपो का दर्शन होता है। और अपनी सुंदर साड़ी, हस्तशिल्प, वस्त्र, खिलौने, गहने, धातु के काम, मिट्टी और लकड़ी और अन्य शिल्प के लिए नाम और प्रसिद्धि अर्जित की है।
- पाई डण्डा नृत्य पाई डण्डा नृत्य गुजरात के डाण्डिया नृत्य के समान है जो कि बुंदेलखण्ड के अहीर समुदाय द्वारा किया जाता है।
‘धोबिया’ लोक कला
- ‘धोबिया’ लोक कला पूर्वांचल एवं भोजपुर की प्रमुख लोक कला है। जनपद गाजीपुर तथा आस-पास के क्षेत्रों में यह कला काफी प्रचलित है।
- “धोबिया में कसावर, मृदंग- पखावज, झांझ व रणसिंघा जैसे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करते हैं। यह ज़्यादातर शादी समारोह और बरातों में किया जाता रहा है।
- उत्तर-प्रदेश राज्य के भोजपुरी क्षेत्र के धोबी समाज में यह लोक कला ‘सामूहिक लोक कला’ के रूप में जाना जाता है।
- ‘धोबिया’ लोक कला के अंतर्गत धोबिया लोक गीत, धोबिया नाच, धोबिया नौटंकी, धोबिया वेश-भूषा, धोबिया लोक संगीत, धोबिया मिथक, धोबिया वाद्ययंत्र, धोबिया लोक संस्कृति, धोबिया साहित्य, धोबिया कहावतें और धोबिया लोकविश्वास इत्यादि लोक कलाओं का हिस्सा है।
- मांगलिक समारोहों की शान समझे जाने वाले धोबिया नृत्य को प्रदेश के पूर्वांन्चल समेत पूरे देश में काफी पसंद किया जाता था।
- धोबिया नृत्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा योजनाएं चलाई जा रही है। धोबिया नृत्य में लिल्ली घोड़ी का उपयोग किया जाता है। इस नृत्य में कलाकार लिल्ली घोड़ी पर सवार होकर विभिन्न मुद्राओं में मंच पर कूदते हैं जो दर्शकों को भाता है।
- इस नृत्य में सिर्फ पुरुष कलाकार नृत्य करते हैं इस नृत्य कला में भाग लेने वाले कलाकार विशेष वेशभूषा धारण करते हैं।इसमें घाघरा अधबहियां, पगड़ी और कसनहटी) शामिल है। इस नृत्य को सिर्फ पुरुष कलाकार ही करते हैं।
- बुज़ुर्ग धोबिया कलाकार रामजनम (70वर्ष) बताते हैं कि “यह नृत्य शैली धोबी समाज से जुड़ी है। जब पहले धोबी समुदाय के लोग अपने राजा के कपड़ों को घाट ले जाकर धुलते थे तब वो एक विशेष तरह का गीत गाते थे। यहीं से धोबिया लोककला का जन्म हुआ।”
फरुवाही नृत्य
- फरुवाही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है।
- फरुआही नृत्य लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे ।
- इस नृत्य में एक साथ कई युवक लाठी के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन करके भगवान राम का गुणगान करते हैं ।
- भोजपुरी भाषी क्षेत्र के ग्राम्यांचल में लंबे समय से चली आ रही फरुवाही नृत्य कला शुद्ध रूप से भोजपुरी का प्रतिनिधित्व करता है।
- इस नृत्य में पैरबाजी, घुंघरू और वाद्य का अद्भुत संयोग दिखता है। इनके प्रदर्शन में मात्र दो-एक वाद्ययंत्र ही परंपरागत तौर पर प्रयुक्त होते हैं और वही आज भी प्रचलन में हैं।
- इस नृत्य के लिये टिमकी (तासा), नगाड़ा व झाल का ही प्रयोग किया जाता है। फरुआही नर्तक धोती, बनियान व गमछा पहन कर ही नृत्य करते हैं। कभी-कभी वह कुर्ता या कमीज पहन कर भी नृत्य करते हैं।
- इस विधा का चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है।