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सांस्कृतिक क्षेत्र : तराई

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तराई क्षेत्र की संस्कृति

तराई क्षेत्र, यहाँ की संस्कृति प्रकृति के समान सुन्दर और सरल है। उत्तर प्रदेश के नेपाल सीमा से जुड़े पहाड़ी इलाके इस क्षेत्र में आते है। इस क्षेत्र में एक राष्टंीय उद्यान और 6 वन्यजीव अभ्यारण्य हैं जो प्रकृति से इस क्षेत्र के जुडाव और सीधी- साधी और सरल जीवन शैली को दर्शाता है।

उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक परिदृश्य हैं, जहां हर शहर में संस्कृति का अलग रंग है। कुशीनगर की बौद्ध और पूर्वांचल संस्कृति, लखीमपुर खीरी की अवधी संस्कृति से, ष्ब्रज क्षेत्र की संस्कृति से प्रभावित बांसुरी निर्माण नगरी पीलीभीत तक, उत्तर प्रदेश की हर संस्कृति का कुछ अंग हमें यहाँ मिला है। प्रकृति और वन क्षेत्रों से यहाँ की संस्कृति का जुडाव इस क्षेत्र को अविस्मरणीय बनाता है।

सांस्कृतिक स्थल चिन्ह

  • कुशीनगर
    कुशीनगर एवं कसया बाजार उत्तर प्रदेश के उत्तरी-पूर्वी सीमान्त इलाके में स्थित एक कस्बा एवं ऐतिहासिक स्थल है। यह बौद्ध तीर्थ है, जहाँ गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था। यहाँ अनेक सुन्दर बौद्ध मन्दिर हैं। इस कारण से यह एक अन्तर्राष्टंीय पर्यटन स्थल है, जहाँ विश्व भर के बौद्ध तीर्थयात्री भ्रमण के लिये आते हैं।
  • महाराजगंज
    महाराजगंज भारत-नेपाल सीमा पर स्थित है। इसकी सीमाएं उत्तर में नेपाल को छूती हैं, दक्षिण में गोरखपुर, पूर्व में पडरौना जिला और पश्चिम में सिद्धार्थ नगर और संत कबीर नगर जिलों। महाराजगंज थारू समुदाय की संस्कृति के लिए उनके लोक संगीत और नृत्य परंपराओं के लिए जाना जाता है।
  • कपिलवस्तु
    कपिलवस्तु महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन के राज्य की राजधानी थी। यहाँ भगवान् बुद्ध ने अपना बचपन सिद्धार्थ के रूप में बिताया था और 29 वर्ष की आयु में घर छोड़कर 12 वर्ष बोधगया से ज्ञान प्राप्त करके लौटे। वर्तमान में, पिपरहवा और गँवरिया जैसे खूबसूरत गांव कपिलवस्तु का सौंदर्य बढाते है। यहां एक प्राचीन स्तूप है, कहा जाता है कि यहाँ भगवान बुद्ध के अवशेष पाये जाते हैं।
  • श्रावस्ती
    प्राचीन काल में यह कोसल देश की दूसरी राजधानी थी। भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती बौद्ध व जैन दोनों का तीर्थ स्थान है, तथागत भगवान बुद्ध दीर्घ काल तक श्रावस्ती में रहे थे। यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर हैं।
  • बलरामपुर बलरामपुर जनजातीय थारू संस्कृति, संगीत, गायन, व प्राकृतिक जीवन शैली के लिए मशहूर है, यहाँ का भौलीशाल गाव अभी भी जनजातीय रहन सहन में है।

संगीत एवं नृत्य

  • जट-जटिन
    जट-जटिन लोककला एवं लोकनृत्य है। इसमें दो नाचने की टोली होती है, जो नाच-गान करके,नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। जट-जटिन भारत के तराई में एक लोकप्रिय लोक नृत्य है। जाट जटिन महिलाओं का नृत्य है, और मानसून के दौरान चांदनी रातों पर किया जाता है
  • झिंझिया
    झिझिया नृत्य तराई का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। तराई के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाले घड़े को लेकर नाचती हैं।
  • झुमरा
    थारू जनजाति का ये नृत्य तराइे क्षेत्र के मुख्य लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को थारू जन जातीय समुदाय द्वारा प्रमुख त्योहारों पर किया जाता है। होली, दीपावली दशहरा इत्यादि।
  • कर्मा नृत्य
    उपरोक्त सम्प्रदाय में करम देवता को इष्ट देवता माना गया, इनके सभी मांगलिक व धार्मिक कार्य अपने करम देवता की पूजा करके किए जाते हैं। इस सम्रपदाय में आज भी बलि पूजा को माना जाता है। इसके बाद इस विशेष नृत्य एक मान्यता ये भी है के इस सम्प्रदाय में सात विवाहित महिलाएं कदम्ब की डाली को विशेष पूजा, अर्चना के साथ स्थापित करती है तथा जो विशेष नृत्य इस अवसर पर किया जाता है उसे कर्मा नृत्य कहते हैं। इसमें महिला कलाकार नृत्य व गायन करती हैं व पुरूष कलाकार मादल बजाकर नृत्य करते हैं।
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जनजाति के प्रमुख वाद्ययंत्र

पैजन:

यह आदिवासी कलाकारों का आभूषण है जैसे कथक नृत्य में जो स्थान पैरो में घुंघरू का होता है। इसी प्रकार आदिवासी कलाकारों का पैर में पहनकर छन छन की आवाज करने वाला लोहे का कड़ा जिसके अंदर लोहे की गोलियॉं होती हैं।

मादल:

आदिवासी समुदायों में मादल को एक पूजनीय वाद्य के रूप में स्थान प्राप्त है, आदिवासी लोगों की मान्यता है कि इन्द्र भगवान की पूजा इसी मादल वाद्य को बजा के की जाती है। ये वाद्य देखने में मृदंग नुमा गले में टांग कर दोनों हाथों से बजाया जाता है।

सिंधा:

इसको गुदुम्ब और घिसिया बाजा के नाम से से भी जाता जाता है, ये वाद्य एक छोटे नंगाड़े के रूप में गले में टॉंगकर रबड़ के ठोस टुकडे़ से बजाया हजाता है, इसमें बारह सिंधा की सींगो का प्रयोग किया गया है। इसको कलाकार घूमघाम कर, नाचकर, कलाबाजी खाते हुये बजाते हैं।

टइयॉं:

एक विशेष प्रकार की मिट्‌टी की छोटी नगड़िया नुमा साज, जिसे गले में टॉंगकर व नीचे बैठकर लकड़ी के दो ड़डों से बजाया जाता है।

ठपला:

यूॅं तो देखने में एक साधारण ठफ दिखाई देता है, लेकिन इस ठपले की खाल को मढ़ने के लिए इसकी तरफ नक्कारे की तरह बिनाई करके खाल को रोका जाता है, इस ठपले का वादन एक मोटी लगड़ी छड़ और एक पतली लकड़ी छड़ एक कंधे पर टॉंगकर नाच—नाच कर बजाते हैं।

झुनझुना:

इस वाद्य को घुघरा, झुनझुना के रूप से भी जानते हैं। देखने में यह एक गदानुमा होता है, जिसेके अन्दर लोहे या पीतल की छोटी-छोटी गोलियाॅं पड़ी होती हैं, जिसे हिलाने पर छन-छन की आवाज होती है।

झाल:

इसे झाॅंझा, व बड़ा मंजीरा के रूप में भी जानते हैं, यह विशेष पीतल फूल धातु का होता है। इसके दो हिस्से होते हैं जिसे आपस में प्रहार करने पर ध्वनि होती है।

ढोल:

एक विशेष आकृति माप का ढोल जो अन्य ढोल से अलग दिखता है जो लकड़ी की दो छड़ों से विशेष वादन किया जाता है, इसका प्रयोग धार्मिक शादी बारात व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।

मोरबीन:

इसे मउहर बीन भी कहते है, देखने में यह एक लम्बी बांसुरी की तरह दिखता है लेकिन इसके बीच में, इसे बजाने के लिए एक विशेष छेद किया जाता है जिसमें हवा फूंक के माध्यम से स्वरों की उत्पत्ति होती हैे।

आदिवासी शाहनाई:

यू मेल शाहनाई से काफी भिन्न है, इसकी लम्बाई अधिकतम एक फीट होती है, इसके बजाने का पत्ता कलाकार स्वयं ताड़ के पत्ते से बनाता है, इसकी ध्वनि भी मूल शाहनाई से काफी भिन्न है।

खोल:

खोल चमड़े, मिट्टी, पर्चमेंट और चावल की धूल से बना एक परक्यूशन यंत्र है। यह वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है