- संक्षिप्त विवरण
- ब्रज क्षेत्र की संस्कृति
- खान पान
- संगीत एवं नृत्य
ब्रज क्षेत्र की संस्कृति
ब्रज क्षेत्र, उत्तर प्रदेश की धरती का एक अनूठा हिस्सा है। ये भूमि भक्ति और संस्कृति के लिए एक ख़ास पहचान रखती है, पूरा का पूरा ब्रज क्षेत्र भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं और उनसे जुड़े प्रसंगों से सरोकार रखता है।
‘‘इत वरहद इत सोनहद , उत सूरसेन के गांव। ब्रज चैरासी कोस में, मथुरामंडल मांह।
मुख्यतया ब्रज भूमि 84 कोस में फैली हुई है, यहाँ के लोक नृत्य हो, गायन हो या कला सब कुछ कृष्ण मय है।
श्रीकृष्ण का जन्मस्थान मथुरा हो या क्रीडास्थली वृन्दावन हो, समीप ही कल कल बहती पावन यमुना हो, नन्द बाबा का गाँव नन्दगाँव हो या राधा जी का गाँव बरसाना सभी का उल्ल्लेख ब्रज की संस्कृति में मिलता है वृन्दावन के रंग जी मंदिर, बांके बिहारी मंदिर, राधा माधव मंदिर। जहाँ एक ओर ब्रज की अनोखी वास्तुकला के उद्धरण है तो वही बड़ी संख्या में श्राद्धलुओं और भक्तों की आस्था के केंद्र भी है भगवान श्री कृष्णा ने गोवर्धन पर्वत और श्री कृष्ण से जुडा , पैगाँव जहां गोपाल कृष्णा ने दूध माँग कर पिया था और भद्रवन जहाँ कृष्णा ने अनेका अनेक लीलाए की थी ये सभी संस्कृति प्रेमियों को अपनी और आकर्षित करते है, और ब्रज की कृष्णमय संस्कृति को दर्शाते है।
यहां की लट्ठमार होली ब्रज की होली का खास हिस्सा है जिसमें ढप झाँझ, मंजीरा और बड़े नगाड़े के साथ लाठी और ढ़ाल की होली होती है, जिसमें रंग के साथ-साथ महिलाएँ पुरुषों को लाठियों से मारती है, और पुरुष अपना बचाव करते हुए नृत्य भी करते हैं
- खान पान
ब्रज के भोज्य पदार्थों में मिष्ठान की अधिकता रहती है। ब्रज में ठाकुरजी का छप्पन भोग एवं पेड़ा का भोग विशेष स्थान रखता है। श्रीबलदाऊ एवं श्रीकृष्ण के भोग माखन मिश्री का भी ख़ास स्थान है। मथुरा का पेड़ा एव खुरचन दूर दूर तक प्रसिद्ध है। प्रातःकालीन अल्पाहार ’कलेवा’ के समय भी नमकीन के साथ मिष्ठान का चलन हैं। दोपहर के भोजन ’रसोई’ में रोटी, दाल-चावल, कढ़ी, सब्जी अथवा पकवान में पूरी कचैड़ी, सब्जी, खीर, रायता, दही, बूरा आदि का चलन है। मौसम के अनुसार सर्दियों में बाजरा, मक्का की रोटी आमतौर पर गेहूँ अथवा गेहूँ चना की मिश्रित रोटी1⁄4मिस्सी रोटी 1⁄2का सेवन होता है। सायं काल में मौसमी फलों का, रात्रि बेला में पराठों के साथ सब्जी तथा मिष्ठान का चलन है।
संगीत एवं नृत्य
- रासलीला
रास लीला या कृष्ण लीला में कृष्ण से जुड़ी कहानियों का मंचन संगीतबद्ध तरीके से किया जाता है। बालक और युवा कृष्णा की वृत्य और गतिविधियों का मंचन होता है ब्रज के साहित्य में सांस्कृतिक और कलात्मक लालित्य की झलक को रास बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। जन्माष्टमी के मौके पर कृष्ण इन सारी लीलाओं को समाहित कर उसे नाटय रूप दिया जाता है जिसे रासलीला या कृष्ण लीला कहा जाता है। रास नृत्य में घुटनों के प्रयोग को धिलांग कहते हैं, घुटनों का नाच रास लीला में ही देखने को मिलता है।
- चरकुला
चरकुला नृत्य ब्रज क्षेत्रवासियों में काफी प्रचलित है, कहा जाता है राधा जी के जन्म पे उनकी नानी मुखरा अपने सर पे बैलगाड़ी के पहिये पे दीपक रख के नाची थी, तब से ये परम्परा चली आ रही है। महिलाएं सर पे चरकुला रख के नृत्य करती है, करीब 30.40 किलो वजन के इस चरकुले 5 या 7 मंजिल का गोलागर डिजाईन में 108 दीपक बने होते है ।
- रसिया
ब्रज में अनेक गायन शैलियां प्रचलित हैं, जैसे ब्रज की प्राचीनतम गायन शैली रसिया जिसमे भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद समाहित है इसका आयोजन रासलीला के साथ भी किया जाता है। लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चैबोला, बहलदृतबील, भगत आदि संगीत भी इस ब्रज क्षेत्र में प्रचलित है।
- हवेली गायन हवेली गायन ब्रज क्षेत्र की प्रमुख शास्त्रीय गायनशैली है, जिसमें शास्त्रीय कृष्ण भक्ति की गायन परम्परा को देखा जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण ब्रज भूमि कृष्ण भक्ति से सराबोर है, और इस विधा की ष्षुरूआत मन्दिरों की गायन परम्परा से हुई।
- मयूर नृत्य
ब्रज क्षेत्र का प्रमुख नृत्य है। इसमें नर्तक मोर के पंख से बने विशेष वस्त्र धारण करते हैं। यह नृत्य इतना मनमोहक होता है कि आपको नृत्य करते हुयी नृत्यांगनाएं जीवंत मोरों का एहसास कराती है। इस नृत्य की मनमोहकता के कारण ही यह नृत्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पहचान रखता है। नृत्य के साथ गायन करने वाले गायक मोरों की आवाज भी निकालते है तथा जीवंतता का महसूस कराते हैं।
ब्रज क्षेत्र के प्रमुख लोक गीत
- झूला
- होरी
- फ़ाग
- लंगुरिया
- रसिया