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सांस्कृतिक क्षेत्र : बुंदेलखंड

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बुंदेलखण्ड की संस्कृति

बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश के दक्षिण में स्थित एक पहाड़ी इलाका, जिसमें कभी अनेक छोटीबड़ी रियासतें हुआ करती थीं। उत्तर प्रदेश के जालौन, झांसी, ललितपुर, चित्रकूट, हमीरपुर, बाँदा और महोबा आदि नगर इस क्षेत्र की सीमा में आते हैं। इस क्षेत्र के इतिहास के हर स्तर पर शौर्य और वीरता की कहानियां है, यहां के स्थापत्य उस बीते गौरव शाली अतीत की गवाही देते है। यहाँ आज भी ऐश्वर्य और शौर्य के निशानों से परिपूर्ण महलों और किले हैं जो बुन्देली संस्कृति का अभिन्न अंग है।

सांस्कृतिक स्थल चिन्ह

  • झाँसी
    झाँसी का किला उत्तर प्रदेश का ही नहीं, भारत के सबसे बेहतरीन किलो में से एक है। झाँसी शहर के मध्य स्थित बँगरा नामक पहाड़ी पर बना है, झाँसी का किला जिसकी पहचान 1857 की क्रांति की वीरांगना झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई से जुडी है ।
  • चित्रकूट
    चित्रकूट, मंदाकिनी नदी के पास का ये क्षेत्र, यहाँ आने वाले लोगों के मन को शांति की अनुभूति कराता है, यहाँ हनुमान धारा, कामद गिरि, स्फटिक शिला, राम घाट और गुप्त गोदावरी यहां की भक्ति संस्कृति का स्तम्भ है।
  • कालिंजर
    कालिंजर, उत्तर प्रदेश बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर में स्थित है, भारत का सबसे विशाल और अपराजेय किलों में से एक ऐतिहासिक कालिंजर दुर्ग विश्व की इकलौती विरासत है।
  • महोबा
    महोबा, कभी शक्तिशाली चंदेला राजवंश की प्राचीन राजधानी रहा महोबा हिलटॉप किला और उत्कृष्ठ इंजीनियरिंग तकनीक से चंदेल राजवंश द्वारा बनवाई गयी झीलों के लिए जाना जाता है। यहाँ कि वीरता का पर्याय आल्हा और उदल है।
  • तालबेहट
    तालबेहट फोर्ट है जो मानसरोवर लेख के किनारे बना है, यहाँ हनुमान अंगद और शिव के मंदिर स्थापित है।
  • सुखवा डूकवा माताटीला
    सुखवा डूकवा व माताटीला बांध बेतवा नदी जल प्रबंध का एतिहासिक बांध है जो दर्शनीय है।

संगीत एवं नृत्य

  • नृत्य राई
    बुंदेलखंड क्षेत्र का लोक नृत्य है, राई जिसका मतलब सरसों के बीज है। जब सरसों के बीज को एक तश्तरी में डाल दिया जाता है तो वे जिस प्रकार घूमता है, ठीक उसी प्रकार, क्षेत्र के मूल निवासी भी चारों ओर घूम घूम कर कहानियों और गीत को गाते है, इस नृत्य में ढोलक बजाने वाले, ढोलकिया और नर्तक एक-दूसरे से जीतने की कोशिश करते हैं, और लोग प्रतियोगिता का आनंद लेते है।
  • आल्हा गायन
    आल्हा गायन इस क्षेत्र की संस्कृति की पहचान है, इसमें आल्हा और उदल वीर का वर्णन है, जो चंदेलों के पक्ष में पृथ्वी राज चैहान के विरुद्ध लड़े थे। अलग-अलग समय पर विभिन्न लेखकों द्वारा रचित आल्हा गीतों को लगातार समृद्ध किया गया है। इसी तरह कहरवा, सोहर, समझे, अहमरी भी बुंदेलखंड की लोकप्रिय लोक संगीत संस्कृति का हिस्सा है।
  • पाई डंडा पाई डंडा, दिवारी पाई डंडा नृत्य, नटवर भेष धारी श्री कृष्ण की लीला पर आधारित नृत्य है। जो उनके गाय चराने के समय यदुवंशीय युद्ध कला का परिचायक है। भाद्रपद की पंचमी से पौष माघ माह की मकर संक्राति तक यह नृत्य होता है ।
  • दीवारी नृत्य
    दीवाड़ी नृत्य, यह नृत्य विशेष रूप से दीपाली के समय प्रदर्शित किया जाता है। इस भव्य नृत्य के पीछे की कहानी भगवान कृष्ण ने लोगों के जीवन को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को जन्म दिया और बाद में उन्होंने खुशी में नृत्य किया।
  • लोकगायन
    बुन्देली गायन में ईश्वरी कवि का बड़ा योगदान है, जिसमें श्रृंगार, वीर आदि भाव को गायन शैली में समाहित कर गीतों का प्रदर्शन किया जाता है, जो बुन्देली गायन कि विशेषता है।
  • खान-पान
    बुन्देली खान पान में दाल भात ,कढ़ी, बरा मंगोरा, कोंच, कचरिया, बिजौरों, पोरी कचैड़ी, और चावल का खिचला आदि

बुंदेलखंड प्रमुख लोक गीत

  • हरदौल
  • पंवारा  
  • ईसुरी फाग  
  • आल्हा
bundelkhand dance

पौराणिक पृष्ठ भूमि

दीवारी नृत्य की व्युत्पत्ति द्वापर युग में भगवान कृष्ण के समय से हुयी। इसका प्रारम्भ भगवान कृष्ण के बाल्यकाल के समय से हुआ। उस समय कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था थी। जिसके लिये गौवंश का होना आवश्यक था। भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम अस्त्र के रूप में हल धारण करते थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय कृषि कार्य के लिए भी हल का प्रयोग होता था। घी, दूध, दही और छाछ के लिए गायों को पाला जाता था। इनसे उत्पन्न बछड़ों और बैलों का प्रयोग कृषि कार्य में होता था। भगवान कृष्ण का गायों के प्रति प्रेम जग जाहिर है। कुछ विद्वानों का मत है कि कृषि से सम्बन्धित होने के कारण ही भगवान का नाम कृष्ण पड़ा।

भगवान कृष्ण जब बाल्यकाल में ग्वालों के साथ जंगल में गौ चराने जाते थे, उस समय लकड़ी के छोटे डण्डों को लेकर भी नृत्य किया करते थे। यह छोटे डण्डे छोटे ग्वाल बालों के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। भगवान कृष्ण को संगीत और नृत्य बहुत पसन्द था। उनका प्रिय वाद्य यंत्र बाँसुरी थी। बाँसुरी प्राय: बाँस की बनी होती थी। इसीलिये हलधर पूजन (हरछठ) के दिन विभिन्न अनाजों के पूजन के साथ बाँसुरी का भी पूजन किया जाता है। कृषि कार्य के लिए हल चलानें के लिये बैलों का प्रयोग होता था। बैलों को हल में जोतने (हल चलानें के लिये) के लिए एक लकड़ी का उपकरण का प्रयोग किया जाता था, जिसे जुआँ कहते थे। इसमें चूँकि दो जुड़वा बैलों को जोता जाता था, अतः यह उपकरण जुआँ कहलाया। आज भी गाँवों में देशी हल से होने वाली प्राचीन परम्परागत खेती में इसका प्रयोग देखा जा सकता है। इसका प्रयोग खेत जोतनें, उसकी बुवाई करने में होता था। बैलगाड़ी से फसलों की ढुलाई होती थी। यह यातायात का भी साधन थी। जुआँ में बैलों का प्रयोग करते समय दोनों बैल इधर-उधर न जाकर सीधे चलते थे, इसके लिए दो छोटे डण्डों का प्रयोग किया जाता था, जिन्हें शैला या सइला कहा जाता था। आज भी इनका प्रयोग होता है।

..बाल्यकाल की छोटी उम्र में ग्वालबालों के लिए लकड़ी के ये शैले (छोटे डण्डे) घरों में सरलता से उपलब्ध होते थे। इन छोटे डण्डों का प्रयोग बाल गोपाल कृष्ण जी के साथ नृत्य में करते थे। आगे चलकर यही नृत्य “पाई-डण्डा नृत्य” कहलाया। इन छोटे डण्डों के प्रयोग, पाई-डण्डा नृत्य के साथ गुजरात में गरबा एवं चौसड़ नृत्य में भी होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लकड़ी के यह छोटे डण्डे कई नृत्यों के अपरिहार्य अंग (उपकरण) हैं।

प्रक्रिया

कृष्ण ग्वाल-बालों के साथ पाई-डण्डा नृत्य में कंधों की मजबूती के साथ-साथ ग्रीवा (गर्दन) को सीधा लकड़ी के इन छोटे डण्डों का प्रयोग करते थे। इसमें रखने में मदद मिलती है। पीठ का मेरुदण्ड सीधा रहते हुए ग्वाल-बाल गोले के आकार में खड़े होकर घूमते हुये अपने मजबूत होता है। यह नृत्य घूमने के साथ-साथ गति, लय दोनों हाथों से अपने अगल-बगली दोनों ओर के सखाओं एवं संतुलन पर आधारित है। योग में मेरुदण्ड और ग्रीवा पर उन डण्डों से प्रहार करते थे। उनके सखा इस प्रहार को (गर्दन) के सीधे होने के महत्व को योग के साधक भली अपने डण्डों से रोकते थे। यह उपक्रम गोले के आकार में भाँति जानते हैं। विभिन्न आसनों, प्राणायाम एवं ध्यान की घूमते हुए लगातार चलता था। आज भी दीवारी के पाई- साधना की प्रक्रिया में मेरुदण्ड एवं ग्रीवा का सीधा एवं डण्डा नृत्य में इसी परम्परा का निर्वाह किया जाता है। मजबूत होना अपरिहार्य है। योगिराज कृष्ण के लिये अपने किशोर वय के बड़े ग्वाल-बाल छोटे ग्वाल-बालों को साथ-साथ अपने ग्वाल-बालों के लिए नृत्य के साथ-साथ अपने कंधे पर बिठाकर उनके हाथों में छोटे डण्डे थमा देते योग का आधारभूत प्रशिक्षण सर्वथा उपयुक्त था। नृत्य की थे। स्वयं दो डण्डे लेकर जमीन में किशोर ग्वाल-बाल उन लय, सांसों की लयबद्धता में सहायक होती है, जो योग डण्डों को उपरोक्त क्रम में प्रयोग करते हुए गोले के आकार साधना में प्राणायाम एवं ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में में घूमते हुये पाई-डण्डा नृत्य करते थे। आज भी पाई- बहुत उपयोगी होती है।

डण्डा नृत्य में इसे दृष्टिगत किया जा सकता है। पाई-डण्डा बड़ी उम्र में छोटे-छोटे डण्डों के स्थान पर बड़े नृत्य दीवारी नृत्य का ही लघु रूप है। डण्डों एवं ठोस बाँस की मजबूत लाठी का प्रयोग होने इस नृत्य में बाल्यकाल से ही दोनों कलाइयों के लगा। खोखले बाँस की बाँसुरी वादन एवं ठोस बाँस की साथ भुजाओं को सौष्ठव प्राप्त होता है। इस नृत्य में दोनों लाठी गोपालन तथा दीवारी नृत्य के लिये उपयोगी थी।

भाव भंगिमा लय एवं गति

दीवारी नृत्य ठोस बाँस की लाठी का प्रयोग होता है, यह बाँस की लाठी ही इस नृत्य का मुख्य आधार है। इस लाठी लम्बाई लगभग 6 फुट होती है तथा वजन 500 ग्राम के आसपास रहता है। इसे प्रत्येक कलाकार अपने साथ लेकर नृत्य में इसका प्रयोग करता है। इसमें वीर रस की प्रधानता रहती है, हुंकार भरी जाती है। प्रतिद्वन्दी को ललकारा जाता है। इस नृत्य की भाव भंगिमा में आक्रोश, गुस्सा एवं साहस प्रदर्शित होता है। लय में गति की तीव्रता बढ़ जाती है। गति की तीव्रता में भी लय-बद्धता कमाल का हुनर है। इस नृत्य की पूरी प्रक्रिया में एकाग्रता एवं संतुलन की आवश्यकता होती है। भुजायें फड़कती हैं। इसकी तुलना शिव के ताण्डव नृत्य से की जा सकती है।

 

यह नृत्य योद्धाओं के युद्ध कौशल पर आधारित है। कहा जाये तो यह एक प्रकार का युद्ध कौशल ही है। पाई- डण्डा एवं दीवारी नृत्य संसार के सभी मार्शल आर्ट्स का जन्मदाता है। जूडो-कराटे में तीव्र गति के साथ मजबूत कलाइयों एवं भुजाओं का प्रयोग होता है। कुंग फू जैसे मार्शल आर्ट्स में लाठी डण्डों का प्रयोग होता है। कालान्तर में लोहे के मोटे-मोटे डण्डों का प्रयोग भी होने लगा। इस कला का विकास भारत के बौद्ध मठों से बौद्ध भिक्षुओं द्वारा हुआ। यही से यह तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, लंका, इंडोनेशिया में फैला। ज्ञातव्य है कि जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म का विकास हुआ, उन्हीं देशों से मार्शल आर्ट्स के युद्ध कौशल का विकास हुआ.


दीवारी नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन करते हुये योद्धा अपने प्रतिद्वन्दियों पर लाठियों से प्रहार करता है। इस माध्यम से उन्हें युद्ध के लिए ललकारता है। अपने कई प्रतिद्वन्दियों द्वारा किये जाने वाले लाठी के प्रहार को रोक कर अपनी रक्षा करता है तथा स्वयं उन पर प्रहार करता है।

दीवारी नृत्य से प्राप्त युद्ध कौशल में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम को दक्षता हासिल थी। वह युद्ध के हथियार के रूप में ‘हल’ का प्रयोग करते थे। इसीलिये ‘हलधर’ कहलाये। हल में एक लम्बे, चपटे मजबूत लकड़ी के डण्डे का प्रयोग होता है, जिसे हरीश कहते हैं। हलधर विभिन्न युद्धों के साथ ‘महाभारत युद्ध’ में इसका प्रयोग किया।इसीलिये दीवारी नृत्य के साथ-साथ युद्ध कौशल भी है।

स्थान

दीवारी नृत्य का उद्गम एवं विकास बुन्देलखण्ड के बाँदा जनपद से हुआ। यहाँ के राजा विराट थे। अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने यहाँ निवास किया। कृष्ण यहाँ आते थे तथा उनके सम्बन्धी भी यहाँ रहते थे। विराट की गायों को कौरवों द्वारा बलपूर्वक ले जाने पर विराट के साथ पाण्डवों ने छद्म वेश में कौरवों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया था।

डण्डा-पाई एवं दीवारी नृत्य का प्रारम्भ भले ही मथुरा एवं वृन्दावन में हुआ हो, परन्तु भगवान कृष्ण के आगमन से इसका विकास विराटपुरी वर्तमान में बांदा जनपद में हुआ।

बाँदा नवाब अली बहादुर जो प्रसिद्ध नृत्यांगना मस्तानी का पुत्र था, जिसने इस कला को संरक्षण एवं बढ़ावा दिया।

कृष्ण की बुआ श्रुतिस्रवा, फूफा जद्घोष यहीं रहते थे। चेदि राज्य का राजा शिशुपाल, जद्घोष का पुत्र था। यहाँ भगवान कृष्ण आते-जाते थे। चेदि राज्य की राजधानी को वर्तमान समय में शेरपुर स्योढ़ा गाँव के नाम से जाना जाता है।

वाद्य यंत्र

पाई-डण्डा एवं दीवारी नृत्य में युद्ध के समय प्रयोग होने वाले वाद्य यन्त्र नगाड़ा एवं उसका लघु रूप नगड़िया का प्रयोग होता है। पैर एवं कमर में घुंघरू की पाजेब एवं पेटी का प्रयोग होता है।

वस्त्र

रंग-बिरंगे जाँघिये एवं हार्फ शर्ट की तरह की बंडी का प्रयोग होता है। इसमें लाल रंग की प्रधानता होती है। अन्य रंगों की पट्टियों से इसे आकर्षक रूप दिया जाता है। सर पर पट्टी एवं कमर में फुलरा व पीठ में गलगन्दा बाँ हैं। कृष्ण के अनुयायी होने के कारण मोर पंख भी लगाते

गायन

इसमें ‘टेर’ और ‘दीवारी’ के विशेष गीत एक विशिष्ट शैली में गाये जाते हैं। इसमें अलाप की प्रधानता रहती है। इसकी अन्तिम पंक्ति में दीवारी के गायक का साथ उसके समूह के कई गायक एवं दीवारी नृत्य के कलाकर देते हैं। इस प्रकार इसका प्रारम्भ एकल गायन से प्रारम्भ होकर अपने अन्तिम सोपान में सामूहिक गायन (कोरस) में बदल जाता है।

समय

दीवारी नृत्य का प्रारम्भ भादौँ (भाद्र पक्ष) की पंचमी से लेकर दीपावली तक होता है। भादौं की पंचमी से कलाकार इसका अभ्यास (रिहर्सल) गाँव-गाँव में प्रारम्भ करते हैं। इसका श्रेष्ठतम रूप कलाकार दीपावली के समय दक्षता के साथ प्रदर्शित करते हैं।

मौन चराना

“मौन” चराने की परम्परा दीवारी से अभिन्न रूप से जुड़ी है। दीवारी के बाद के पहले दिन परीवा को दीवारी नृत्य के कलाकर तथा अन्य लोग “मौन वृत” का पालन करते हैं। यह लोग कृष्ण के अनुयायी होने के कारण कई मोर के पंखों को एकत्र कर मुठवा बनाकर हाथ में लेते हैं। बंधन के रूप में गाय के पूंछ से बनी रस्सी (नोई) प्रयोग करते हैं। इस दिन गायों को रस्सी एवं खूंटे से नहीं बांधा जाता है। यह भगवान कृष्ण की प्रिय गायों की स्वतंत्रता का प्रतीक है। इस दिन ज्वार के खेत लेकर ‘मौन’ व्रत रखने वाले, जिन्हें ‘मौनिहा’ कहा जाता है। गायों को चरने के लिये छोड़ देते हैं।

मौन चराने की परम्परा भी भगवान श्रीकृष्ण के पौराणिक कथानक से जुड़ी है। जब भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को ग्वाल-बालों के लाठियों एवं डण्डों के साथ उठाया था। उन्होंने ग्वालों को ‘मौन’ रहकर एकाग्र चित्त रहने को कहा था, जिससे सन्तुलन बना रहे और शक्ति स्थिर रह सके। यह भगवान कृष्ण द्वारा सामूहिक योग का प्रदर्शन था। इसीलिये इस दिन ‘मौनिहा’ मौन व्रत रखते हैं और पाँच गांवों में पहुँचकर या पाँच गाँवों की सीमा को छूकर आने के बाद अपना मौन व्रत तोड़ते हैं। विवेकानन्द के अनुसार ‘मौन’ आत्मशक्ति को बढ़ाता है। दीवारी नृत्य का प्रचलन वर्तमान समय में अहीर, गड़रिया, पाल जाति के मध्य अधिक देखने को मिलता है। ‘मौन’ सभी चराते हैं।

दीवारी गीत

सुमिरनी– सदा भवानी दाहिनी, सनमुख रहे गणेश।
              तीन देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।।

टेर – वृन्दावन बसवौ तजौ, अरे हौन लगी अनरीत।
        तनक दही के कारने, बहिया गहत अहीर।।

दीवारी

1-पहिले सुमिरौ धरती माता का, दूजै भवानी तोया रे।
   तीजो सुमिरौ अपनी माता का, जो कुंछा में डारे नहीं नवमासा रे।।

2-सावन माँ सजी कजलियाँ और भादौं सजी पूछारा रे।
   कार्तिक माँ सजे मौनियाँ, सो लहे गऊ के पूंछा रे।।

3-देश दीवारी दस दिन की, भइया गउरा माँ बारौ मांस रे।
    नित राही गोधन धरय, कॉन्हा खिलावै गाया रे।।

4-दीवारी घुरावै नदी पार से, सुन मल्लाहे बाता रे
    नदी पार उतार दे, कार्तिक निकरो जाता रे।।

5-हम पंछी तुम केवला, सदा रहै भरपूरा रे।
   हाड़ चाम चाहै जहाँ रहै, पर प्राण तुम्हारे पासा रे।।

6-राधा निकरी ती पनिया का, कृष्ण उबेरी गाया रे।
    जैसी पियारी तोरी माथे की बेंदी, वैसी पियारी मोरी गाया रे।।

7-सरास्वती बरनन करौ, गुरुचरनन की आशा रे।
    ग्राम बड़ोखर खुर्द बसो है, तिन्दवारा के पासा रे।।

8- ठुमुक ठुमुक ढोलवा बाजै, जेरा लहरियाँ लेया रे।
    सासा ननदिया बारे कै बैरिन, ढोलवा न देखन देया रे।।

9- राधा जी के बाग मां, फूलो फूल सफेदा रे।
    राधा पूंछा कृष्ण से, सो कृष्ण नाम नहीं लेया रे।।

10- चम्पा त्वहमा तीन गुन, रंग रूप और बांसा रे।
      और गुण त्वहमा कौन है, कि भौंरा न आवय पासा रे।।

11- चम्पा राधा बरन है, भंवर कृष्ण का दासा रे।
      माता अपनी जान कै, भंवरा न आवै पासा रे।।

12- देवी मनगवें मैं चली, लै ओली भरा आ फूला रे।
      देवी मनायें न मानै तौ, सूखे ओली के फूला रे।।

13-लाल ग्वाल को संग लै, कुंज गलिन से आना रे।
     आन सखी को छेड़ कर, लेत है दही का दाना रे।।

14-ब्रज चौरासी कोष में, चार गाँव निज धामा रे।
    ब्रन्दावन और मधपुरी, बरसानो नंदगांवा रे।।

15-दूधा पीके आई दीवारी औ, बैठी बरा की डारा रे।
     आवत-आवत बहुत दिन लागै और जातय न लागै देरा रे।।

16-गाई चरावै दोई जने, इक बुड्डा एक ज्वाना रे।
     बुड्डा बैठे झूला झूले, ज्वान बह्वारे गाया रे।।

17-माता मरे से कलेउना छूटगा, भाई मरे से बांहा रे।
     बहनी मरे से बहनोई छूटगा, पिता मरे से राजा रे।।

18-बे पत्तन कै महुली रौववे, बे सींगन के गाया रे।
     बिना विरन कै बहनी रोवै, गलियां बिसूरत जाया रे।।

19-धरती केर कुचइया लैगय, चील उड़ाया रे।
     अरै गुनी मैं तुमसे पूछौ, कहाँ बैठ के खाया रे।।

20-धरती खोदे जल मिलय, मिन्त्र मिलय परदेशा रे।
      माता का जन्मों फिर न मिलै, भटकय चारौ देश रे।।

21-तेलीन बड़ी पूजेरिन पूजै, बरा के डारा रे।
     आओ हाड़ी तैय गा खखरिया, पूजै मनुष के हाड़ा रे।।

22-छत्रसाल तोरी राज मां, धिक-धिक धरती होया रे।
      ज्यो-ज्यो घोड़ा पग धरयै, त्यों-त्यों हीरा होया रे।।

23-हती हमारी गिर गई, गई पिया के पासा रे।
     उन माँगी हम दय दई, तासे चली निराशा रे।।

24-जग में जब-जब जुल्म भे, सहि न सही मही भारा रे।
      तब तब हरी ने है लियो, मनुज रूप औतारा रे।।

दीवारी गीत

सुमिरनी– सदा भवानी दाहिनी, सनमुख रहे गणेश।
               तीन देव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।।

टेर – वृन्दावन बसवौ तजौ, अरे हौन लगी अनरीत।
          तनक दही के कारने, बहिया गहत अहीर।।

दीवारी

1-पहिले सुमिरौ धरती माता का, दूजै भवानी तोया रे।
   तीजो सुमिरौ अपनी माता का, जो कुंछा में डारे नहीं नवमासा रे।।

2-सावन माँ सजी कजलियाँ और भादौं सजी पूछारा रे।
   कार्तिक माँ सजे मौनियाँ, सो लहे गऊ के पूंछा रे।।

3-देश दीवारी दस दिन की, भइया गउरा माँ बारौ मांस रे।
    नित राही गोधन धरय, कॉन्हा खिलावै गाया रे।।

4-दीवारी घुरावै नदी पार से, सुन मल्लाहे बाता रे
    नदी पार उतार दे, कार्तिक निकरो जाता रे।।

5-हम पंछी तुम केवला, सदा रहै भरपूरा रे।
   हाड़ चाम चाहै जहाँ रहै, पर प्राण तुम्हारे पासा रे।।

6-राधा निकरी ती पनिया का, कृष्ण उबेरी गाया रे।
    जैसी पियारी तोरी माथे की बेंदी, वैसी पियारी मोरी गाया रे।।

7-सरास्वती बरनन करौ, गुरुचरनन की आशा रे।
    ग्राम बड़ोखर खुर्द बसो है, तिन्दवारा के पासा रे।।

8- ठुमुक ठुमुक ढोलवा बाजै, जेरा लहरियाँ लेया रे।
    सासा ननदिया बारे कै बैरिन, ढोलवा न देखन देया रे।।

9- राधा जी के बाग मां, फूलो फूल सफेदा रे।
    राधा पूंछा कृष्ण से, सो कृष्ण नाम नहीं लेया रे।।

10- चम्पा त्वहमा तीन गुन, रंग रूप और बांसा रे।
      और गुण त्वहमा कौन है, कि भौंरा न आवय पासा रे।।

11- चम्पा राधा बरन है, भंवर कृष्ण का दासा रे।
      माता अपनी जान कै, भंवरा न आवै पासा रे।।

12- देवी मनगवें मैं चली, लै ओली भरा आ फूला रे।
      देवी मनायें न मानै तौ, सूखे ओली के फूला रे।।

13-लाल ग्वाल को संग लै, कुंज गलिन से आना रे।
     आन सखी को छेड़ कर, लेत है दही का दाना रे।।

14-ब्रज चौरासी कोष में, चार गाँव निज धामा रे।
    ब्रन्दावन और मधपुरी, बरसानो नंदगांवा रे।।

15-दूधा पीके आई दीवारी औ, बैठी बरा की डारा रे।
     आवत-आवत बहुत दिन लागै और जातय न लागै देरा रे।।

16-गाई चरावै दोई जने, इक बुड्डा एक ज्वाना रे।
     बुड्डा बैठे झूला झूले, ज्वान बह्वारे गाया रे।।

17-माता मरे से कलेउना छूटगा, भाई मरे से बांहा रे।
     बहनी मरे से बहनोई छूटगा, पिता मरे से राजा रे।।

18-बे पत्तन कै महुली रौववे, बे सींगन के गाया रे।
     बिना विरन कै बहनी रोवै, गलियां बिसूरत जाया रे।।

19-धरती केर कुचइया लैगय, चील उड़ाया रे।
     अरै गुनी मैं तुमसे पूछौ, कहाँ बैठ के खाया रे।।

20-धरती खोदे जल मिलय, मिन्त्र मिलय परदेशा रे।
      माता का जन्मों फिर न मिलै, भटकय चारौ देश रे।।

21-तेलीन बड़ी पूजेरिन पूजै, बरा के डारा रे।
     आओ हाड़ी तैय गा खखरिया, पूजै मनुष के हाड़ा रे।।

22-छत्रसाल तोरी राज मां, धिक-धिक धरती होया रे।
      ज्यो-ज्यो घोड़ा पग धरयै, त्यों-त्यों हीरा होया रे।।

23-हती हमारी गिर गई, गई पिया के पासा रे।
     उन माँगी हम दय दई, तासे चली निराशा रे।।

24-जग में जब-जब जुल्म भे, सहि न सही मही भारा रे।
      तब तब हरी ने है लियो, मनुज रूप औतारा रे।।