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उत्तर प्रदेश लोक एवं जनजाति संस्कृति संस्थान का उद्देश्य

उत्तर प्रदेश में जनजातीय स्थिति

अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की घोषणा किसकी याद ताजा करती है? औपनिवेशिक प्रशासनिक विचार हमारे भारतीय संविधान में परिलक्षित होता है। इसके अनुसार सरकार की 2011 की जनगणना के प्राथमिक डेटा। भारत की हमारी कुल जनसंख्या देश 1,028,737,436 है। इस जनसंख्या में से 8.2 प्रतिशत अनुसूचित जाति के हैं जनजाति अगर हम राज्यों और संघ में अनुसूचित जनजाति की आबादी को देखें उनमें से अधिकांश क्षेत्र उत्तर-पूर्वी राज्य मिजोरम में रहते हैं, मेघालय और नागालैंड और लक्षद्वीप द्वीप। तुलनात्मक रूप से अगर हम लेते हैं अविभाजित उत्तर प्रदेश के मामले में आदिवासी आबादी बहुत कम थी। फिर जब राज्य विभाजित उत्तराखंड में एसटी की प्रमुख आबादी थी।

उत्तर प्रदेश में 107963 अनुसूचित जनजाति रह गई, जो कि वहां की जनसंख्या का केवल 0.1% है राज्य। हालांकि यह दिलचस्प है कि 2002 में तत्कालीन सरकार ने घोषणा की थी कुछ नई अनुसूचित जनजाति। अब इसका पुन: विश्लेषण करना एक महत्वपूर्ण कार्य होगा जनसंख्या परिदृश्य (2011 की जनगणना के अनुसार)  उपरोक्त आँकड़ों को ध्यान में रखते हुए वे निस्संदेह उत्तर में अल्पसंख्यक हैं प्रदेश। लेकिन नई घोषणा का कारण जो भी हो, यह एक कड़वी सच्चाई है कि ये लोग गरीबी, कर्ज, भूख, अकाल, गंभीर उद्योगपतियों और खनिकों के हाथों शोषण। उनकी दयनीय स्थिति निरक्षरता और अन्य विकास उपायों के कारण अप्रतिनिधित्व। आश्चर्यजनक रूप से उत्तर प्रदेश की नव घोषित जनजाति पर 2019 तक कोई बड़ा कार्य नहीं हुआ है

जनजाति के प्रमुख वाद्ययंत्र

पूर्वांचल
पैजन

पैजन:

यह आदिवासी कलाकारों का आभूषण है जैसे कथक नृत्य में जो स्थान पैरो में घुंघरू का होता है। इसी प्रकार आदिवासी कलाकारों का पैर में पहनकर छन छन की आवाज करने वाला लोहे का कड़ा जिसके अंदर लोहे की गोलियॉं होती हैं।

पूर्वांचल
मादल

मादल:

आदिवासी समुदायों में मादल को एक पूजनीय वाद्य के रूप में स्थान प्राप्त है, आदिवासी लोगों की मान्यता है कि इन्द्र भगवान की पूजा इसी मादल वाद्य को बजा के की जाती है। ये वाद्य देखने में मृदंग नुमा गले में टांग कर दोनों हाथों से बजाया जाता है।

पूर्वांचल
सिंधा

सिंधा:

इसको गुदुम्ब और घिसिया बाजा के नाम से से भी जाता जाता है, ये वाद्य एक छोटे नंगाड़े के रूप में गले में टॉंगकर रबड़ के ठोस टुकडे़ से बजाया हजाता है, इसमें बारह सिंधा की सींगो का प्रयोग किया गया है। इसको कलाकार घूमघाम कर, नाचकर, कलाबाजी खाते हुये बजाते हैं।

पूर्वांचल
टइयॉं

टइयॉं:

एक विशेष प्रकार की मिट्‌टी की छोटी नगड़िया नुमा साज, जिसे गले में टॉंगकर व नीचे बैठकर लकड़ी के दो ड़डों से बजाया जाता है।

पूर्वांचल
ठपला

ठपला:

यूॅं तो देखने में एक साधारण ठफ दिखाई देता है, लेकिन इस ठपले की खाल को मढ़ने के लिए इसकी तरफ नक्कारे की तरह बिनाई करके खाल को रोका जाता है, इस ठपले का वादन एक मोटी लगड़ी छड़ और एक पतली लकड़ी छड़ एक कंधे पर टॉंगकर नाच—नाच कर बजाते हैं।

पूर्वांचल
झुनझुना

झुनझुना:

इस वाद्य को घुघरा, झुनझुना के रूप से भी जानते हैं। देखने में यह एक गदानुमा होता है, जिसेके अन्दर लोहे या पीतल की छोटी-छोटी गोलियाॅं पड़ी होती हैं, जिसे हिलाने पर छन-छन की आवाज होती है।

पूर्वांचल
झाल

झाल:

इसे झाॅंझा, व बड़ा मंजीरा के रूप में भी जानते हैं, यह विशेष पीतल फूल धातु का होता है। इसके दो हिस्से होते हैं जिसे आपस में प्रहार करने पर ध्वनि होती है।

पूर्वांचल
ढोल

ढोल:

एक विशेष आकृति माप का ढोल जो अन्य ढोल से अलग दिखता है जो लकड़ी की दो छड़ों से विशेष वादन किया जाता है, इसका प्रयोग धार्मिक शादी बारात व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है।

पूर्वांचल
मोरबीन

मोरबीन:

इसे मउहर बीन भी कहते है, देखने में यह एक लम्बी बांसुरी की तरह दिखता है लेकिन इसके बीच में, इसे बजाने के लिए एक विशेष छेद किया जाता है जिसमें हवा फूंक के माध्यम से स्वरों की उत्पत्ति होती हैे।

पूर्वांचल
आदिवासी शाहनाई

आदिवासी शाहनाई:

यू मेल शाहनाई से काफी भिन्न है, इसकी लम्बाई अधिकतम एक फीट होती है, इसके बजाने का पत्ता कलाकार स्वयं ताड़ के पत्ते से बनाता है, इसकी ध्वनि भी मूल शाहनाई से काफी भिन्न है।

पूर्वांचल
खोल

खोल:

खोल चमड़े, मिट्टी, पर्चमेंट और चावल की धूल से बना एक परक्यूशन यंत्र है। यह वाद्य यंत्र पश्चिम बंगाल में पाया जाता है

जनजाति के प्रमुख संगीत एवं नृत्य

जट-जटिन

जट-जटिन लोककला एवं लोकनृत्य है। इसमें दो नाचने की टोली होती है, जो नाच-गान करके,नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। जट-जटिन भारत के तराई में एक लोकप्रिय लोक नृत्य है। जाट जटिन महिलाओं का नृत्य है, और मानसून के दौरान चांदनी रातों पर किया जाता है

झिंझिया

झिझिया नृत्य तराई का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। तराई के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाले घड़े को लेकर नाचती हैं।

झुमरा

थारू जनजाति का ये नृत्य तराइे क्षेत्र के मुख्य लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को थारू जन जातीय समुदाय द्वारा प्रमुख त्योहारों पर किया जाता है। होली, दीपावली दशहरा इत्यादि।

करमा नृत्य

उपरोक्त सम्प्रदाय में करम देवता को इष्ट देवता माना गया, इनके सभी मांगलिक व धार्मिक कार्य अपने करम देवता की पूजा करके किए जाते हैं। इस सम्रपदाय में आज भी बलि पूजा को माना जाता है। इसके बाद इस विशेष नृत्य एक मान्यता ये भी है के इस सम्प्रदाय में सात विवाहित महिलाएं कदम्ब की डाली को विशेष पूजा, अर्चना के साथ स्थापित करती है तथा जो विशेष नृत्य इस अवसर पर किया जाता है उसे कर्मा नृत्य कहते हैं। इसमें महिला कलाकार नृत्य व गायन करती हैं व पुरूष कलाकार मादल बजाकर नृत्य करते हैं।

फरुवाही नृत्य

यह भारतीय इतिहास की पहली एक ऐसी नाच है जिसमें सिर्फ मर्द ही नाचते हैं और तमाम रूप से ऐसा रूप दिखाते हैं जिसमें सिर्फ जो वीर और उत्साही भरा होता है अगर देखने वाला निश्चित तौर पर अपने आप को जो गौरवान्वित महसूस करता है।

फरुवाही लोकनृत्य का इतिहास

फरुवाही लोकनृत्य लगभग 1500 वर्ष पूर्व से होता चला आ रहा है हमारे सैनिक युद्ध के उपरांत अपने साथियों के साथ में अपनी खुशी मनाने के लिए फरुवाही लोकनृत्य करते थे करतब करते थे जैसे लाठ जिसमें मुख्यतः नक्कारा. हारमोनियम. बांसुरी. करताल. झांच. मजीरा. के साथ नृत्य करते थे कलाकार धोती. बनियान. घुंघरू. गमछा पहनते थे।

  • फरुवाही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है।
  • फरुवाही नृत्य लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे ।
  • इस विधा का चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है।